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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-५७ ९३ हो न? कि 'सुनते सुनते कभी कल्याण हो जायेगा....' इस भावना से आते हो? अथवा 'नित्य-प्रतिदिन गुरुमुख से धर्मोपदेश सुनना चाहिए,' इस श्रद्धा से आते हो? अच्छा है, धर्मोपदेश सुनने की आदत भी अच्छी आदत है! मनुष्य के जीवन में अच्छी आदतें होनी चाहिए। __ परन्तु जो विशेष बुद्धिमान लोग हैं, जिनके हृदय में मोक्षमार्ग की आराधना करने की भावना जगी हुई है, वे लोग जैन हों या अजैन हों, देशी हों या विदेशी हों, उनके लिए ऐसे ग्रन्थों का अध्ययन और श्रवण बड़ा लाभप्रद हो सकता है। व्यवहारशुद्धि की साधना जरूरी : आत्म-कल्याण की साधना के पूर्व जीवन-व्यवहार की साधना, व्यवहारशुद्धि की साधना कर लेनी चाहिए, यदि गृहस्थजीवन जीना है तो! अशुद्ध व्यवहार, आत्मशुद्धि की साधना में बाधक बनता है। जिनके जीवन-व्यवहार अशुद्ध होते हैं उनकी धर्मआराधना निर्मल, निश्चल और आनन्दप्रद नहीं होती है। फिर, भले वह धर्माराधक अपने मन को मना ले कि 'क्या करूँ? मेरे पापकर्मों का वैसा उदय है कि धर्माराधना में मेरा मन स्थिर रहता ही नहीं है, मन्दिर में भी पापविचार आ जाते हैं।' आ जायेंगे पापविचार | क्यों नहीं आयेंगे? जीवनचर्या ही अशुद्ध बना रखी है, फिर पापविचार नहीं आयेंगे तो क्या आयेगा? पाप ही प्रिय हैं, तो पापविचार आना स्वाभाविक है। आप जीवन-व्यवहार को शुद्ध करें, फिर देखें कि मन धर्माराधना में स्थिर रहता है या नहीं! पापविचारों का प्रवाह कम होता है या नहीं? अपनी वास्तविक भूलों का निदान नहीं करना, भूलों का सुधार करना नहीं और 'मेरे पापकर्म का उदय है - 'ऐसा मानकर, बोलकर अपने मन का समाधान कर लेना, अपने आपके साथ ही छलना है। बहुत बड़ी वंचना है। ३५ प्रकार का सामान्य धर्म क्या है? गृहस्थजीवन की विशुद्ध चर्या ही तो है। विशुद्ध जीवनचर्या का दूसरा नाम है गृहस्थ का सामान्य धर्म । आप लोगों को तो पता ही कहाँ है विशुद्ध जीवनचर्या का! एक-दूसरे की जीवनचर्या देखकर जीवन जी रहे हो न? 'जिस प्रकार दूसरे लोग जीते हैं उस प्रकार हम जीते हैं।' यही है न आपका जवाब? जीवन-व्यवहार में किसका मार्गदर्शन लेते हो? किसी का नहीं। देखादेखी जीवन जी रहे हो। धर्म भी देखादेखी कर रहे हो न? जिस प्रकार दूसरे लोग विधिपूर्वक या अविधिपूर्वक धर्म करते हैं, For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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