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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४ प्रवचन-३१ • यदि आप अपनी आवश्यकताएँ कम कर दें, तो अवश्य न्याय-नीति एवं प्रामाणिकता से अपनी आजीविका मजे से चला सकते हो! .आत्मा और कर्म का संयोग ही तो संसार है! आत्मा जब कर्मों के पाश से मुक्त बनती है... बस, वही मोक्ष है, वही निर्वाण है। • अज्ञानता, यह जीवात्मा की सबसे बड़ी दुश्मन है। अज्ञानता जीव से न करवाने के कार्य करवाती है और दुःख की परंपरा खड़ी करके रख देती है। • जीवन में यदि कुछ करने जैसा है तो वह यही कि कर्मों के भार तले दबी हुई हमारी आत्मा को बाहर निकाल कर उसे उजली बनाएँ... यही परम एवं पवित्र कर्तव्य है। . किसी से कुछ मांगने पर भी वह नहीं दे तो उस पर गुस्सा करने के बजाय अपने 'लाभान्तराय कर्म' के बारे में सोचो। प्रवचन : ३१ महान श्रुतधर आचार्यश्री हरीभद्रसूरीश्वरजी 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में गृहस्थजीवन का सामान्य धर्म बता रहे हैं। इसमें पहला धर्म बता रहे हैं 'न्यायसंपन्न वैभव ।' गृहस्थ को न्याय-नीति और प्रामाणिकता से धनप्राप्ति का पुरुषार्थ करना चाहिए | आज तो लोग ऐसा कहते हैं कि 'न्याय-नीति से यदि व्यापार करते हैं तो हमारी आवश्यकतानुसार हम धनप्राप्ति नहीं कर सकते हैं।' __पहली बात तो यह है कि आप लोगों की आवश्यकताएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही हैं। उन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आपको दिनप्रतिदिन आय भी बढ़ानी होती है! न्याय-नीति से आय बढ़ती नहीं है इसलिए अन्याय-अनीति से आय बढ़ाने का प्रयत्न करते हो और विषचक्र में उलझ जाते हो। उलझ गये हो न? चिन्ताएँ और अशान्ति बढ़ गई हैं न? सुख-दुःख की आधारशिला है कर्म : जरा स्वस्थ दिमाग से सोचो कि अन्याय-अनीति से धन ज्यादा मिलता होता तो इस संसार में कौन निर्धन होता? सभी अन्याय-अनीति करनेवाले धनवान् होते! मात्र न्याय-नीति से व्यापार करनेवाले निर्धन होते! क्या है ऐसा For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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