SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२८ मा. धर्मविहीन श्रीमंतों को अति ज्यादा महत्व देकर, उनकी __महत्वाकांक्षाओं को थपथपाकर हम अपने संघ को, समाज को बरबादी की तरफ ले जा रहे हैं। दिन ब दिन संघ और समाज के नैतिक मूल्य घिसते ही जा रहे हैं...इसके लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं... और कोई नहीं! . स्वेच्छया समतापूर्वक यदि दुःख सहन कर लिए जाते तो आत्मा पर जमे हुए अनंत-अनंत कर्म अवश्य नष्ट हो जाएंगे। दुःख सहन करने में जरा भी आर्तध्यान या दीनताभरी लाचारी नहीं आनी चाहिए। 'फैशन' के पीछे पागल...व्यसनों में फंसे हुए और अंधानुकरण की खाई में गिरे हुए जीवों के लिए मोक्षमार्ग है ही नहीं! भोगासक्त जीव तो इस मोक्षमार्ग को समझ भी नहीं पाएंगे। STEST प्रवचन : २८ महान् श्रुतधर आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी ने 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ में सामान्य गृहस्थधर्म की मर्मग्राही व्याख्या की है। उन्होंने सर्वप्रथम, गृहस्थजीवन के निर्वाह हेतु अर्थोपार्जन किस प्रकार करना चाहिए, इस बात की विस्तार से चर्चा की है। गृहस्थ को अर्थोपार्जन करना अनिवार्य होता है। अर्थोपार्जन के बिना गृहस्थजीवन का निर्वाह हो नहीं सकता! परन्तु अर्थोपार्जन करने मात्र से गृहस्थ सुखी नहीं बन सकता है। यदि वह अन्याय से और अनीति से धन कमाता है तो उसका जीवन अशान्ति और संताप से भर जाएगा | भौतिक सुख की विपुल सामग्री उसके पास होने पर भी वह शान्ति, समता और प्रसन्नता का अनुभव नहीं कर सकता है। आप लोगों में से कइयों को ऐसा अनुभव होगा ही! है न ऐसा अनुभव? अशुद्ध मन : अशुद्ध व्यवहार : 'न्याय' का अर्थ है शुद्ध व्यवहार! आपको व्यापार में अथवा नौकरी में व्यवहार शुद्ध रखना चाहिए। परन्तु जब तक मनुष्य का मन अशुद्ध होगा तब तक उसका व्यवहार कैसे शुद्ध बनेगा? मन में एक बहुत बड़ी अशुद्धि जमी हुई है....वह अशुद्धि है श्रीमंत बनने की वासना! धनवान् बनने की तीव्र For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy