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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४८ २७९ दिए हैं। उन साधनों का उपयोग दुराचार के सेवन में करने से कौन रोकता है? __यदि गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्म का पालन करना है, मानवता के पुष्पों को जीवन-वन में उगाना है तो आन्तरिक शत्रुओं से बचना होगा। आन्तरिक शत्रु पर विजय पाना होगा। इन्द्रियों पर आंशिक संयम भी रखना होगा। जीवनपद्धति में थोड़ा परिवर्तन करें : आज का वातावरण जो कि अत्यंत कलुषित और विलासी है, उसमें कामवासना पर संयम रखने का काम सरल नहीं है, यह बात मैं जानता हूँ, परन्तु फिर भी कहता हूँ कि दृढ़ मनोबल से यदि आप चाहें तो संयम रख सकते हैं। जीवन जीने की पद्धति में कुछ परिवर्तन करना होगा और परिवार के सभ्यों को आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पाने के अभियान में सहयोगी बनाने होंगे। यदि परिवार के लोग आपके सहयोगी बनेंगे और आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पाने के कार्य में आपको साथ देंगे तो आप सफल बनेंगे। जिस प्रकार कामवासना शत्रु है उस प्रकार क्रोध भी आन्तरिक शत्रु है। क्रोध शत्रु है, चूंकि वह शत्रुओं को पैदा करता है। चूंकि वह जिसके तन-मन में प्रवेश करता है उसको बरबाद करके रहता है। यह बात भी मैं मानता हूँ कि आप क्रोध का सर्वथा त्याग नहीं कर सकते, परन्तु आप क्रोध को शत्रु तो मान सकते हो न? क्रोध को मित्र मानकर उसका सत्कार मत करो, यह मेरा कहना है। यदि मित्र मानकर क्रोध को तन-मन में स्थान दे दिया, तो बरबाद हो जाओगे। शरीर से बरबाद, धन संपत्ति से बरबाद, संबंधों से बरबाद और परिवार से भी बरबाद हो जाओगे। क्रोध को मित्र मानने का अर्थ यह होता है : 'यदि गुस्सा नहीं करता हूँ तो लड़के कहा नहीं मानते, पत्नी भी कहा नहीं मानती है। इसलिए गुस्सा तो करना ही पड़ता है।' __ 'यदि गुस्सा नहीं करते हैं तो जिनके पास हम पैसा मांगते हैं, वे देते नहीं। दो-चार गाली बकते हैं....आँख लाल करते हैं....तभी पैसा मिलता है।' _ 'यदि गुस्सा नहीं करते हैं, तो लड़के-लड़कियाँ बिगड़ जाते हैं, पढ़ते नहीं हैं, अनुशासन में नहीं रहते हैं....इसलिए हम मास्टरों को गुस्सा तो करना ही पड़ता है।' For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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