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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४२ __२१७ पहले निर्णय कर लो कि आपको कैसा बनना है। बस, फिर वैसे लोगों की प्रशंसा करते रहो। दुष्ट बनना हो तो दुष्टों की, और शिष्ट बनना हो तो शिष्टों की प्रशंसा करते रहो। प्रशस्य...प्रशंसापात्र जीवन जीने के लिए मनुष्य को शिष्ट बनना अनिवार्य है। सद्गृहस्थ का जीवन व्यतीत करने के लिए मनुष्य को शिष्टता का संपादन करना ही होगा। धार्मिक या आध्यात्मिक जीवन बसर करने के लिए मनुष्य को शिष्ट बनना ही होगा। आप लोग द्विधा में न रहें, दुष्टता का सुख और शिष्टता का सुख-दोनों के सुख पाने की आदत छोड़ दें! भीतर में दुष्टता और बाहर से शिष्टता बनाए रखने की वृत्ति का त्याग करना होगा। मज़ा तो देखो : मनुष्य दुष्टतापूर्ण आचरण भी करता है कोई सुख पाने की धारणा से! बहुत-सी गलत धारणायें मनुष्य ने बाँध रखी हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार आदि पापाचरण, मनुष्य सुख पाने की धारणा से ही करता है। 'मैं असत्य बोलूँगा तो मुझे रुपया ज्यादा मिलेगा, मुझे कष्ट नहीं आयेगा, मैं कष्ट से मुक्ति पाऊँगा...।' इस धारणा से मनुष्य झूठ बोलता है। दूसरी भी ऐसी कई तरह की धारणाएं होती हैं। परन्तु, परिवार में समाज में, देश में झूठ बोलना, चोरी करना, दुराचारसेवन करना बुरा काम माना गया है, इसलिए मनुष्य ऐसे पापाचरण छिपाना चाहता है। उसे दुष्टता प्रिय है परन्तु शिष्टता का दिखावा करता है। दुष्टता का प्रेम बना रहता है....और एक दिन उसकी दिखावटी शिष्टता का जर्जरित परदा फट जाता है। दुष्टता का प्रेम और शिष्टता का प्रदर्शन जब तक बना रहेगा तब तक शिष्टता-सज्जनता प्राप्त नहीं होगी। शिष्टता कोई दिखावे की या प्रदर्शन की वस्तु नहीं है। सभा में से : सभ्यता तो रखनी चाहिए न? शिष्टता क्या है? महाराजश्री : सभ्यता बाहरी व्यवहार है, शिष्टता आन्तरिक योग्यता है। भीतर में शिष्टता हो और बाहर सभ्यता हो-तब आप पूर्ण सद्गृहस्थ बन जाओगे। अरे, भीतर में मान लो कि शिष्टता नहीं है परन्तु शिष्टता का प्रेम है, शिष्टता के प्रति आकर्षण है, तो भी बहुत है। वह आकर्षण के प्रति प्रेम जाग्रत करने के लिए और उस प्रेम को बनाये रखने के लिए, आपको शिष्ट For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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