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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४२ __ २११ उदय है तो उसको कोई सुखी नहीं कर सकता। यदि जीव का पुण्यकर्म का उदय है तो उसको कोई दुःखी नहीं कर सकता। राजा इस सिद्धान्त को मान्य करने हेतु तैयार नहीं था | मयणासुन्दरी इस सिद्धान्त को छोड़ने हेतु तैयार नहीं थी। उसने पिता को साफ साफ शब्दों में सुनाया-'पिताजी, यदि मेरा पापकर्म का उदय होता तो आप मुझे सुखी नहीं कर सकते थे। सुख-दुःख मनुष्य के अपने पुण्य-पाप कर्मों पर आधारित है। 'आप किसी को सुखी नहीं कर सकते, आप किसी को दुःखी नहीं कर सकते।' राजा को यह बात बहुत ही अखरने लगी। राजा को गुस्सा आ गया। वह आपे से बाहर हो उठा। सभा में से : सन्तानों को माता-पिता के उपकार मानने चाहिए ऐसा सिद्धान्त नहीं है क्या? ___ महाराजश्री : सिद्धान्त है परन्तु औपचारिकता मूलक सिद्धान्त है। वास्तविकता दूसरी है। संसार के सारे संबंध ही औपचारिक हैं! मिथ्या हैं। फिर भी व्यवहारमार्ग में अपेक्षा से उन संबंधों की उपादेयता स्वीकृत है। जब पारमार्थिक दृष्टि से सोचें तब व्यवहारदृष्टि गौण हो जाती है। सुख दुःख का आधार जीवात्मा के पुण्य-पापकर्म हैं। निरपेक्ष बात सिद्धान्त नहीं बन सकती : बड़ी समझने जैसी बात है यह! सिद्धान्त सापेक्ष होते हैं। निरपेक्ष बात सिद्धान्त नहीं बन सकती । अपेक्षाओं का अनुसंधान करना चाहिए | मयणासुन्दरी के पास सम्यक्ज्ञान था। सिद्धान्तों की सापेक्षता वह अच्छी तरह जानती थी। पिता के कर्तृत्त्व का अभिमान वह तोड़ना चाहती थी, साथ-साथ पारमार्थिक सत्य समझाना चाहती थी। पारमार्थिक सत्य प्रकाशित करने पर पिता नाराज हो जाये तो हो जाये.... वह निर्भय थी!' 'पिताजी नाराज होंगे तो मेरे सुख चले जाएंगे, ऐसा कोई भय नहीं था उसके मन में। राजा बहुत नाराज हुआ, परन्तु मयणा ने अपना सिद्धान्तपक्ष नहीं छोड़ा। राजा बौखला गया। मयणा को सबक सिखाने का संकल्प किया और एक दिन एक परदेशी कुष्टरोगी युवक को राजसभा में बुलवा कर राजा ने कुमारी से कहा : 'ले तेरे कर्म तेरे लिए यह पति लाये हैं! कर ले इसके साथ शादी!' मयणासुन्दरीने पिताजी की बात शान्ति से सुनी। कोई प्रतिक्रिया नहीं! यानी कोई इनकार नहीं, जरा भी गुस्सा नहीं, कोई दीनता नहीं, कोई रुदन For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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