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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ प्रवचन-३७ सामान्य धर्म की उपेक्षा न करें : सामान्य धर्म जीने का धर्म है। यदि आप लोग विविध सामान्य धर्मों को समझकर जीने का पुरुषार्थ करोगे तो धर्म की अपार महिमा का अनुभव कर सकते हो। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि आपको जीने हैं पाप और करना है धर्म! पसन्द है पापमय जीवन और करना है थोड़ा-सा धर्म! वह भी इसलिए कि पापों के फल भोगने न पड़ें। परन्तु इस प्रकार किया हुआ विशेष धर्म आपको दुर्गति में जाने से बचा नहीं सकेगा | सामान्य धर्म की उपेक्षा करके, विशेष धर्म की कुछ क्रियाएँ करनेवाले दुर्गति से नहीं बच पाते हैं, ऐसे कई उदाहरण शास्त्रों में मिलते हैं। कुछ गंभीरता से सोचो तो काम बन पायेगा। मात्र सुन कर चले जाओगे तो कुछ भी जीवन-परिवर्तन होनेवाला नहीं है। न्याय-नीति और प्रमाणिकता को अर्थपुरुषार्थ में स्थान दो। कुल-शील-वैभव-वेश और भाषा की समानता को कामपुरुषार्थ में स्थान दो। ज्यादा तर्क-वितर्क मत करो। सात्त्विक बनो और हिंमत से परिवर्तन के पथ पर चलो। दाम्पत्य जीवन को लेकर कुछ विशेष बातें यहाँ बताई जा रही हैं, जिससे आपके धर्मपुरुषार्थ का मार्ग निर्बाध, निराकुल और प्रशस्त बन सके। आप प्रसन्नचित्त बनकर आत्मकल्याण की साधना कर सकें। __मान लो कि आपने कुल-शील वगैरह की समानता देखकर भिन्न गोत्र की कन्या के साथ, योग्य उम्र में शादी की, परन्तु उस कन्या की, जो आपकी पत्नी बनकर आई है, उसकी सुरक्षा भी आपको करनी होगी। उसके तन की और उसके मन की चिन्ता करनी होगी, यानी उसके शारीरिक स्वास्थ्य की और मन के विचारों की सद्विचारों की सुरक्षा करने की आपकी जिम्मेदारी होती है। ___ आपकी पत्नी नहीं हो, पुत्रवधू हो तो पुत्रवधू की शारीरिक एवं मानसिक सुरक्षा आपको करनी ही होगी। यदि आप उपेक्षा करोगे तो बड़ा अनर्थ हो सकता है। एक कहानी बहू की : एक बड़े नगर में एक श्रीमन्त परिवार रहता था। सेठ को एक ही पुत्र था। पुत्र सुशील था, संस्कारी था। एक सुयोग्य कन्या से पुत्र की शादी कर दी गई। शादी के बाद एक वर्ष में ही लड़का स्वर्गवासी हो गया, उसकी अकाल मृत्यु हो गई। माता-पिता और पत्नी के दुःख की कोई सीमा न रही.... परन्तु दुःख सहन करे बिना दूसरा कोई रास्ता नहीं था। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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