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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३३ १०५ जीवात्मा को नचाता है। कभी हँसता है तो कभी रुलाता है! कभी क्रोधी बनाता है तो कभी दीन-हीन बनाता है! जातीय वासना से उत्तेजित भी यही मोहनीयकर्म करता है। समझ लो इस कर्म और उसके व्यापक प्रभावों को। यदि मोहनीय-कर्म के प्रभावों को रोकने का प्रयत्न नहीं किया तो आत्मा की दुर्दशा हो जायेगी। यदि यह प्रयत्न नहीं किया तो अनन्त पापकर्मों से आत्मा बँध जायेगी और दुर्गति में चली जायेगी। मानवजीवन में आप मोहनीय-कर्म का नाश कर सकते हो, उसके प्रभावों को रोक सकते हो। ___ अब्रह्म का सेवन, मैथुन की क्रिया मोहनीय-कर्म-प्रेरित होती है | यदि आप अब्रह्मसेवन करना नहीं चाहते हैं तो आप ब्रह्मचर्य का पालन करें। यदि आप अपनी जातीय वासनाओं पर संपूर्ण संयम रखने में समर्थ नहीं हैं, संपूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करने में समर्थ नहीं हैं तो आपको किसी योग्य व्यक्ति से शादी कर लेनी चाहिए। शादी से संबद्ध व्यक्ति से ही आप अपनी स्पर्श-वासना को शांत कर सकते हैं। युगलिकों का समय : __ भारत में शादी की प्रथा इस हेतु से शुरू हुई है। अपनी जैन-परम्परा के अनुसार भगवान ऋषभदेव से शादी की परम्परा शुरू हुई है। उसके पहले युगलिक मनुष्यों की सृष्टि थी। युगल यानी जोड़ा। लड़का और लड़की का युगल जन्म लेता था, दोनों साथ में बड़े होते थे और पति-पत्नी का संबंध भी उन दोनों में होता था। हालाँकि शादी की क्रिया संपन्न नहीं होती थी, स्वाभाविक रूप से ही उन दोनों का जातीय संबंध हो जाता था। युगलिक स्त्री-पुरुष बड़े प्रामाणिक, संतोषी और प्रशान्त होते थे। कभी भी पुरुष परस्त्री का अभिलाषी नहीं बनता था, कभी स्त्री पर-पुरुष का संग नहीं करती थी। हर युगलिक एक जोड़े को जन्म दे देता था और उनका आपस में सम्बन्ध हो जाता था। स्त्री और धन के नाम कोई लड़ाई नहीं थी, कोई झगड़ा नहीं था। इसलिए उस काल में राज्यव्यवस्था नहीं थी, न्यायालय नहीं थे। सभी मानव प्रकृति के नियमों का अनुसरण करते थे। वही उनका धर्म था। वे लोग किसी भी जीव की हिंसा नहीं करते थे, कभी असत्य नहीं बोलते थे, कभी चोरी नहीं करते थे, कभी व्यभिचारी नहीं बनते थे और परिग्रह भी नहीं रखते थे। है न यह महान धर्म? इसके प्रभाव से सभी युगलिक मनुष्य मरकर स्वर्ग में जाते थे। कोई भी युगलिक नरकगति, तिर्यंचगति और मनुष्य गति में नहीं जाता था। उस काल में मनुष्य ही नहीं पशु भी प्रशान्त होते थे। For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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