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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-६ ___७२ 5. करुणा, सर्वज्ञत्व एवं वीतरागता-ये तीनों उच्चतम तत्त्व जिस आत्मा में परिपूर्णरुप से विकसित हो जाते हैं, वही आत्मा धर्मतत्त्व का यथार्थ प्रतिपादन कर सकती है। • बुद्ध ने कहा : आत्मा अनित्य ही है! कपिलऋषि ने कहा : आत्मा नित्य ही है! भगवान महावीर ने कहा : आत्मा नित्य भी है, अनित्य भी है! द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्यायदृष्टि से अनित्य है। . हमें वेदों से कोई दुश्मनी नहीं है या आगमों में आसक्ति नहीं है। अनेकान्त दृष्टि से जहाँ प्रतिपादन होता है, वहाँ पर हमें पेम होता है. वहाँ हमारी श्रध्दा होती है। . प्रेम जड़ में चेतन का दर्शन करवाता है! परमात्मप्रेमी पत्थर से में भी परमात्मा का दर्शन कर सकता है! प्रेम में वहम नहीं = होता है! प्रेम में अहम् भी नहीं रहता है! • प्रवचन : ६ वचनाद् यदनुष्ठानमविरुद्धाद् यथोदितम् । मैत्र्यादिभावसंयुक्तं तद्धर्म इति कीर्त्यते ।। परम करुणानिधान पूज्य आचार्यदेव हरिभद्रसूरीश्वरजी धर्म का स्वरूप समझा रहे हैं। धर्म का द्विविध स्वरूप बताया गया है। एक है क्रियात्मक स्वरूप, दूसरा है भावात्मक स्वरूप । क्रियात्मक धर्म मनःकल्पना के अनुसार नहीं किया जा सकता है। नाम मात्र धर्म का, फिर मनःकल्पित क्रिया करें, जब चाहें तब करें, जहाँ चाहें वहाँ करें, यह कोई धर्म नहीं है। पापक्रिया, धर्म के वस्त्र पहन ले, इससे वह धर्मक्रिया तो बन नहीं जाती। सर्वज्ञ और वीतराग पर ही विश्वास करना चाहिए : __ जिनवचन के अनुसार क्रियानुष्ठान होना चाहिए। 'जिन' ही सर्वज्ञ होते हैं, वीतराग होते हैं। सर्वज्ञता और वीतरागता होने से उन्होंने जो धर्म बताया, यथार्थ बताया, बड़ा ही वास्तविक बताया। उन्होंने जो धर्मतत्त्व का प्रतिपादन किया, उसमें कोई विरोध नहीं। अर्थात् तर्क की भूमिका पर कोई विसंगति For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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