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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२२ २९० - जीवद्वेष जैसा और कोई पाप नहीं है। जीवपीड़ा जैसा दूसरा कोई दुष्कृत्य नहीं है। जीवद्वेष को मिटाने के लिए बार-बार मैत्री वगैरह भावनाओं की गंगा में स्नान करते रहना चाहिए। 'अहंकार' और 'ममकार' - 'मैं' और 'मेरा' के साथ तिरस्कारनफरत की दोस्ती हो ही जाती है। घर में या संसार में जिन बड़ों के दिल में उपेक्षा-भावना (माध्यस्थ्य भावना) नहीं होती ऐसे कई व्यक्तियों को मैंने घोर अशांति और संताप में झुलसते देखा है! क्या सभी को सुधारने का ठेका हमने ही ले रखा है? क्यों हम अपनी मान्यताओं और इच्छाओं को औरों पर इतनी सख्ताई से थोपते हैं? असहिष्णुता की आड़ में हमारी भाषा कठोर हो जाती है। । शब्दों की कोमलता, मधुरता हमारे लिए जैसे कुछ माईने ही नहीं रखती है! प्रवचन : २२ परम उपकारी महान् श्रुतधर पूज्य आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में धर्म का स्वरूपदर्शन करवाते हैं। धर्म के अनुष्ठान करनेवालों में, धर्मक्रियाएँ करनेवालों में मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य भावों की अनिवार्य आवश्यकता बतानेवाले ये आचार्य भगवंत जैनशासन में अपना गौरवपूर्ण स्थान बना गये हैं। जैन ही नहीं, जैनेतर विद्वान भी इस जैनाचार्य की मुक्त मन से प्रशंसा करते हैं। स्वदेशी ही नहीं, विदेशी विद्वान भी हरिभद्रसूरि की प्रशंसा करते हैं। भले ही आज उनके द्वारा लिखे गए १४४४ ग्रन्थ नहीं मिल रहे हैं, जो भी चालीस-पचास ग्रन्थ मिले हैं, अपूर्व हैं, अद्भुत हैं। कुछ ग्रन्थों का गुजराती भाषा में अनुवाद भी हो गया है। हिन्दी भाषा में भी कुछ ग्रन्थों का अनुवाद मिलता है। आप लोग पढ़ सकते हैं। चिन्तन-मनन कर सकते हैं। आपको बहुत आनन्द... आत्मानन्द प्राप्त होगा। For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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