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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७४ प्रवचन-२१ - हरिभद्र पुरोहित मंदिर में से उपाश्रय में आये | आचार्यदेव के दर्शन होते ही नमस्कार किया और 'मैं आ सकता हूँ?' की पृच्छा कर, आचार्यदेव की अनुमति पा कर, वे आचार्यदेव के चरणों में आए। पुनः प्रणाम कर विनय से वे आचार्यदेव के चरणों में बैठ गये। आचार्यदेव ने 'धर्मलाभ' का आशीर्वाद दिया और वात्सल्यभाव से कुशलता की पृच्छा की। हरिभद्र पुरोहित ने अपने आगमन का प्रयोजन बताया। गुरुदेव ने जान लिया कि इसके हृदय में साध्वीजी के प्रति प्रमोदभाव जाग्रत हुआ है, परमात्मा के प्रति भी सच्ची दृष्टि खुल गई है। उन्होंने हरिभद्र पुरोहित को कहा : गुरुदेव का वात्सल्यभरा जवाब : __ 'महानुभाव! जैनदर्शन में क्रमिक अध्ययन करने का विधान है। जैनदर्शन इतना गहन, गंभीर और विशाल है कि इसका क्रमिक अध्ययन करने पर ही सही तत्त्वज्ञान प्राप्त हो सकता है | जैनदर्शन का रहस्यभूत ज्ञान साधुजीवन में ही पाया जा सकता है। अनेकान्तवाद और सप्तनयों की बातें जाननेसमझने के लिए सतत गुरुकुलवास करना चाहिए। एक श्लोक का अर्थ जानने से क्या? यह तो जैन परिभाषा में लिखा गया श्लोक है। अर्थ भी सरल है। तुम्हारे जैसे मेधावी, मनस्वी और प्रज्ञावंत पुरुष तो महान श्रुतधर बन सकते हैं। ज्ञान की अपूर्व ज्योति अपनी आत्मा में प्रगट कर सकते हैं। अनेक अज्ञानी जीवों को प्रकाश प्रदान कर सकते हैं | मानवजीवन की यही तो सफलता है!' आचार्य भगवंत की धीर, गंभीर और करुणामयी वाणी ने हरिभद्र पुरोहित के अन्तःस्तल को स्पर्श किया, सुखद स्पर्श था वह । हरिभद्र को अपनी प्रतिज्ञा का खयाल था। आचार्यश्री किस बात की ओर इंगित कर रहे हैं वह भी वे समझ रहे थे। उनके मन, हृदय, अन्तरात्मा में आनन्द की शहनाई बज रही थी। समय पूरा हो गया है। आज, बस इतना ही। For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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