SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२० २६३ समाप्त! धन चला गया, निर्धन हो गया व्यक्ति, प्रेम समाप्त! जबकि गुणों में ऐसा परिवर्तन नहीं आता। इसलिए प्रेम शीघ्र समाप्त नहीं होता है। गुणदृष्टि समाप्त नहीं होनी चाहिए। प्रमोदभावना के चार प्रकार बताए गए हैं 'षोडशक' नाम के ग्रन्थ में | १. सुख मात्र के प्रति प्रमोद । २. इहलौकिक सुख के प्रति प्रमोद | ३. परभव-इहभव की अपेक्षा से सुख के प्रति प्रमोद । ४. परम शाश्वत् सुख के प्रति प्रमोद । हम इन चार प्रकारों में से सर्वप्रथम चौथा प्रकार लेंगे। फिर तीसरा, बाद में दूसरा और तत्पश्चात् पहला प्रकार | आज और कल, दो दिन में चारों प्रकारों पर विवेचन सम्पूर्ण करना है। तीर्थंकर परमात्मा के प्रति स्नेहभाव : जिन तीर्थंकर परमात्माओं ने परमशाश्वत् सुख पाने का मार्ग बताया, मार्ग का उपदेश दिया, मार्ग में साथ दिया, उन तीर्थंकर परमात्मा के प्रति अपने हृदय में अपार स्नेह, अपार ममता होनी चाहिए। तीर्थंकर परमात्मा के गुण, उनका जीवन और उनके उपकारों का चिन्तन, मनन और स्तवन करने से उनके प्रति प्रेम जाग्रत होगा, प्रेम दृढ़ होगा। उनका ज्ञानगुण, दर्शनगुण, वीतरागता और अनन्त वीर्य-इन चार अक्षय गुणों का विचार करें, तो भी उनके प्रति हृदय प्रेम से भर जाय। जिनमें राग नहीं और द्वेष नहीं, जिनमें मोह नहीं और अज्ञान नहीं, उनके सुख का पूछना ही क्या? उनका सुख शाश्वत् होता है। उनका सुख अवर्णनीय होता है। दुनिया ने राग में सुख माना है, दुनिया को वीतरागताजन्य सुख की कल्पना भी नहीं होती है। रागी के सुख से अनन्तगुना ज्यादा सुख वीतरागी को होता है। 'प्रशमरति' में कहा है : यत्सर्वंविषयकांक्षोद्भवं सुखं प्राप्यते सरागिणा। तदनन्तकोटिगुणितं मुधैव लभते विगतरागः ।। रागी के सुख से वीतरागी का सुख अनन्त-अनन्त गुना ज्यादा होता है। वीतराग सदेह भी होते हैं और विदेह भी होते हैं। तीर्थंकर और दूसरे केवलज्ञानी सदेह वीतराग होते हैं। मोक्ष में गए हुए विदेह वीतराग होते हैं। सदेह, विदेह-दोनों वीतरागी का सुख समान होता है। ऐसे परमसुखी वीतरागी For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy