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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-१९ २५८ श्री शान्तसुधारस ग्रन्थ में उपाध्याय श्री विनयविजयजी ने कहा है : प्रमोदमासाद्य गुणैःपरेषां येषां मतिर्मज्जति साम्यसिन्धौ । देदीप्यते तेषु मनःप्रसादो गुणास्तथैते विशदी भवन्ति ।। 'दूसरों के गुण देखकर जिनको प्रमोद होता है उनकी मति सदैव समतासागर में निमज्जन करती है, उनका मनःप्रसाद शोभायमान होता है और उनके गुण विशेष रूप से विशद बनते हैं।' इसलिए वे महापुरुष अपने आपको सम्बोधित कर कहते हैं : विनय, विभावय गुणपरितोषम्। परिहर दूरं मत्सरदोषम् ।। 'गुणवान पुरुषों के तू गुण ही गुण देख | गुण देखकर ही प्रसन्न रह, ईर्ष्यादोष को दूर त्याग दे।' प्रत्येक जीव में गुण तो होगा ही : __ एक बात समझ लो! इस संसार में आपको कोई सम्पूर्ण गुणवान मनुष्य तो मिलेगा नहीं। जिनमें एक भी दोष न हो, सबके सब गुण हों, वैसा व्यक्ति मिलेगा नहीं। हर इन्सान में कोई न कोई दोष तो होगा ही। छद्मस्थ जीवात्मा में अनन्त दोष होते हैं। ऐसी वास्तविक स्थिति में, दूसरे जीवों में गुण देखना है। काम इतना सरल नहीं है। हालाँकि प्रत्येक जीवात्मा में गुण होते हैं अवश्य! देखने की दृष्टि चाहिए | दृष्टि हो तो गुण देखेंगे। गुणदृष्टि से ही गुण दिखते हैं। दोषदृष्टि से दोष ही दिखाई देंगे। दोषदर्शन करनेवाले में प्रमोदभाव हो नहीं सकता। प्रमोदभाव के बिना धर्मतत्त्व पाया नहीं जा सकता। ___ अनन्त जन्मों से जीवों में ईर्ष्या-मत्सर दोष सहज हो गया है। उस दोष को मिटाने का लक्ष्य बनना चाहिए । 'मेरे जीवन में ईर्ष्या को जरा-सा भी स्थान नहीं होना चाहिए।' ऐसा दृढ़ संकल्प होना चाहिए। ईर्ष्या से होनेवाले नुकसानों का पूरा खयाल होना चाहिए । 'प्रमोदभाव' से होनेवाले सभी लाभों का खयाल होना चाहिए। ईर्ष्या को जलाने के लिए गुणानुवाद करो : ईर्ष्या को मिटाने के लिए आप दूसरे जीवों के गुणानुवाद करना प्रारंभ करो। छोटा-बड़ा गुण देखने को मिले, आप उस गुण की मुक्त मन से प्रशंसा For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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