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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-१७ २33 आलोचना भी तंदुरस्त हो सकती है : धनवान है, परन्तु दान नहीं देता, तन्दुरस्त है, परन्तु तप नहीं करता... बूढ़ा हो गया है परन्तु शीलव्रत का पालन नहीं करता है, समय मिलता है फिर भी मंदिर नहीं जाता है, परोपकार के कार्य नहीं करता है, बुद्धि है फिर भी तत्त्वज्ञान पाने का पुरुषार्थ नहीं करता है... ऐसे मनुष्य के प्रति धिक्कार या तिरस्कार नहीं करना चाहिए | आजकल तिरस्कार करना सामान्य बात बन गई है। द्वेषपूर्ण समालोचना करना साधारण बात बन गई है। क्योंकि आजकल मनुष्य का हृदय करुणाहीन बनता जा रहा है। बाह्य दृष्टि से दुःखी जीवों के प्रति करुणा नहीं है, तो आन्तर दृष्टि से दुःखी जीवों के प्रति करुणा करने की तो बात ही कहाँ! निर्धन, रोगी, दीन-हीन जीवों के प्रति दया आती है? दूसरे नहीं, अपने स्नेही, अपने स्वजन ऐसी स्थिति में आ गए हों, उनके प्रति भी दया आती है? एक भगत को मैंने कहा : 'आपका भाई बहुत दुःखी स्थिति में है, आप उसकी सहायता करें तो उसकी स्थिति सुधर जाय।' फौरन भगत ने मुझे कह दिया : 'महाराज साहब, आप उसको अच्छी तरह नहीं जानते। वह तो ऐसा ऐसा है।' भगत ने अपने भाई की काफी बुराई की। मैंने कहा : 'आपने अपने भाई में जो-जो बुराई बताई, क्या आप में ऐसी कोई बुराई नहीं है न? दूसरी बात, भाई बुरा है, उसका परिवार तो वैसा खराब नहीं है न? आप परिवार को तो सहायता कर सकते हैं न?' ऐसे होते हैं ये भगत लोग! अब कहिए, आपसे क्या अपेक्षा रखू? एक बात समझ लो : यदि हृदय में मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य भाव धारण नहीं किए तो आपकी कोई भी धर्मक्रिया 'धर्म' नहीं बनेगी। ऐसी भावशून्य क्रियाएँ आपको दुर्गति से नहीं बचायेंगी। आप भरोसे में रह जाओगे कि 'इतनी इतनी धर्मक्रियाएँ करते हैं, अपन नरक में नहीं जायेंगे। परन्तु आप बच नहीं सकोगे। इसलिए कहता हूँ कि मैत्री वगैरह भावनाओं का अभ्यास करो, आत्मासात् करो। चित्त को शुद्ध करो। शुद्ध चित्त ही धर्म है। शुद्धचित्त ही पुण्यानुबंधी पुण्य से पुष्ट बनता है। शुद्ध और पुष्ट चित्त ही मोक्षप्राप्ति का असाधारण कारण है। 'धर्म' तत्त्व के विषय में गंभीरता से सोचें । यहाँ जो बातें आप सुनते हैं, उन बातों पर चिन्तन-मनन करें। आज, बस इतना ही। For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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