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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रवचन- १७ साध्वीजी निराश हो जाती हैं : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२० साध्वीजी ने सारी बात बताई। नमि की अंगुली पर रही हुई मुद्रिका बताकर कहा : 'पढ़ ले इस मुद्रिका पर जो नाम है ! तेरे पिता का नाम है। मैं तेरी माता हूँ।' साध्वी ने नमि को सारी बात कह सुनाई । युद्ध नहीं करने को बहुत बहुत समझाया, परन्तु नमिराजा नहीं माना। 'भले वह मेरा भाई हो, मुझे मेरा हाथी चाहिए। यदि वह हाथी दे देता है सामने आकर, तो मुझे युद्ध नहीं करना है। अन्यथा युद्ध तो करूँगा ही । ' साध्वीजी को निराशा हुई । तुरंत उसको याद आया : 'इसने मेरा दूध नहीं पिया है न! दूसरी बात, कषाय प्रबल होते हैं, सही बात समझने नहीं देते हैं । ' साध्वीजी को किसी भी प्रकार युद्ध नहीं होने देना था। उन्होंने सुदर्शनपुर में जाकर चन्द्रयश को समझाने का निर्णय किया। वे चली आई सुदर्शनपुर नगर में और सीधी पहुँची राजमहल के दरवाजे पर सैनिकों ने साध्वीजी को देखकर दरवाजा खोल दिया । साध्वीजी सीधे राजमहल के भीतर पहुँच गईं, जहाँ चन्द्रयश रहता था । For Private And Personal Use Only चन्द्रयश ने साध्वी को देखते ही पहचान लिया ! 'अरे, यह तो मेरी माता है ! मेरी महासती माता है ।' बड़े ही विनय से, आदर से, भक्ति से राजा ने नमस्कार किया, आसन प्रदान किया और सारे महल में समाचार भेज दिए । चन्द्रयश की रानियाँ भी वहाँ आ गई, रानियों ने भी भक्तिपूर्ण हृदय से वंदना की। मंत्रीमंडल भी वहाँ पहुँच गया। सबकी आँखें आँसू बरसा रही थीं । चन्द्रयश ने हाथ जोड़कर कहा : 'माता, ऐसा दुष्कर व्रत क्यों धारण कर लिया?' साध्वी ने मधुर वाणी में सारी बात कह सुनाई । युगबाहुदेव के मिलन की बात भी कह सुनाई । सबके मन प्रसन्नता से भर गए । चन्द्रयश ने पूछा : 'आर्ये, वह मेरा छोटा भाई अभी कहाँ है?' साध्वीजी ने कहा : 'अभी तो वह सुदर्शनपुर को घेर के खड़ा है!' 'क्या नमिराजा?' ‘हाँ! आश्चर्य, आनन्द और उद्वेग के मिश्र भावों से चन्द्रयश भर गया । आगे की बात आगे! आज, बस इतना ही ।
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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