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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-१६ २१३ से समृद्ध और बाहर से निर्धन... माघकवि आशावादी थे। वे कभी राजाओं की खुशामद करना पसन्द नहीं करते। इसलिए वे कभी राजसभा में नहीं जाते थे। दरिद्रता ने महाकवि की कड़ी परीक्षा शुरू की थी। पत्नी भी दरिद्रता से उद्विग्न थी। उसने आग्रह कर एक दिन महाकवि को राजसभा में भेजा। राजा ने कवीश्वर का स्वागत किया, राजा तो बहुत प्रसन्न हुआ माघकवि को अपनी राजसभा में आए देखकर | महाकवि की काव्य-प्रतिभा से प्रसन्न होकर राजा ने महाकवि को हाथी, घोड़े, सोना मुहरें, अलंकार, धान्य वगैरह... बहुत दिया । महाकवि यह सब लेकर राजसभा में से निकले तब राजमार्ग के दोनों ओर भिक्षुक खड़े रह गए थे। सब याचना कर रहे थे : 'भिक्षां देहि! भिक्षां देहि!' दीन-दुःखी, दरिद्र लोगों को देखकर महाकवि का हृदय द्रवित हो गया। अपने पास जो था, देना शुरू कर दिया। किसी को हाथी दिया, किसी को घोड़ा! किसी को अलंकार तो किसी को सोनामुहरें... देते ही चले... जब वे अपने घर पहुंचे तब उनके पास सिवाय दाल-चावल, कुछ भी नहीं बचा था! बाहर से खाली हो गए थे परन्तु भीतर से भर गए थे! आन्तरिक आनन्द की सीमा नहीं थी! मुख पर अपूर्व प्रसन्नता छायी थी... आँखों में से करुणा बरस रही थी। पत्नी भी कितनी महान् ? घर के द्वार पर उनकी धर्मपत्नी महाकवि का इन्तजार करती खड़ी थी। उसकी कल्पना थी कि महाकवि काफी धन-दौलत लेकर पधारेंगे! महाकवि ने पत्नी के हाथों में दाल-चावल की दो पोटली थमा दी और प्रसन्नवदन से उसके सामने देखते रहे! बोले : 'देवी! आज तो दीन-दुःखी को देने में इतना आनन्द आया... क्या वर्णन करूँ? राजा ने बहुत दिया, मैंने सारा का सारा माल गरीबों को, अनाथों को दे दिया । मुझे लगा कि मुझे से भी ज्यादा जरूरत उनको थी...।' पत्नी तो सुनती ही रही! वह अपने पति को अच्छी तरह समझती थी... पति के करुणासभर हृदय को उसने कभी निर्दयता से तोड़ा नहीं था। अपनी दरिद्रता से उद्विग्न होने पर भी उसने अपने आप पर संयम किया था। हालाँकि घर में खाने को कुछ भी नहीं बचा था। महाकवि जो दाल-चावल लाये हैं, उससे ही खिचड़ी पकाकर खाने की थी। फिर भी उसने महाकवि को प्रसन्न मुद्रा में कहा : 'नाथ, बहुत अच्छा किया आपने! आपका हृदय ही निराला है... करुणा का सरोवर है! आप दुःखी के दुःख नहीं देख सकते। खैर, अब आप विश्राम करें, मैं भोजन तैयार करती हूँ।' For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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