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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७१ प्रवचन-१३ हुआ अनुष्ठान 'धर्म' नहीं कहलाएगा। भले ही वह अनुष्ठान सर्वज्ञकथित हो, यथोदित किया गया हो, वह 'धर्म' नहीं बन सकता। देखोगे तो सोचोगे : टटोलो अपने अन्तःकरण को। भीतर देखो, क्या-क्या पड़ा है भीतर! कैसे कैसे भाव पड़े हैं हृदय में? शत्रुता, ईर्ष्या, निर्दयता, नफरत, तिरस्कार...वगैरह असंख्य दुर्भावों के ढेर लगे हैं न? भीतर देखोगे तो दिखाई देगा। देखोगे तो सोचोगे! देखते ही नहीं, तो फिर सोचोगे कैसे? ये भाव अच्छे नहीं हैं, उनको निकाल दूँ, ये भाव अच्छे हैं, उनको सुरक्षित रखू ।' ऐसा सोचते हो क्या? मकान में देखते हो कि 'यहाँ कचरा पड़ा है, तो सोचते हो कि 'इसको निकाल देना चाहिए।' वस्त्रों को देखते हो कि कपड़े गंदे हो गए हैं, तो सोचते हो 'इनको धोना चाहिए।' मनुष्य देखता है तो सोचता है! देखे ही नहीं तो सोचेगा कैसे? परन्तु दुर्भाग्य है कि मनुष्य अपने भीतर नहीं देखता है। बाहर तो कितना कुछ देखता है! घर में, बाजार में, स्कूल-कॉलेज में, पार्क में और क्लबों में कम देखने को मिलता है... तो सिनेमा देखने जाता है। नाटक देखने जाता है! बाहर का ढेर सारा देखता है तो सोचता भी बाहर का ही है! भीतर में... अन्तःकरण में देखें... तो वहाँ भी विराट विश्व है! भीतर में भी स्वर्ग और नर्क है! हृदय की शुद्धि आवश्यक है : भीतर देखने के लिए आँखें बन्द करनी पड़ती हैं! कान बंद करने पड़ते हैं। बाहर की आँखें बंद करोगे तब अन्तःचक्षु खुल जाएंगे। अन्तःचक्षु से भीतर की दुनिया देखना। कैसे-कैसे भाव पड़े हैं वहाँ! अनन्त-अनन्त जन्मों से, अनन्त अनन्त दुष्ट भाव आत्मा में... कर्मबद्ध आत्मा में जमे हुए पड़े हैं। ये दुष्ट भाव हमारी क्रियाओं को 'धर्म' नहीं बनने देते। चाहे क्रियाओं का बाह्य रूप धार्मिक क्यों न हो? अशुभ और अशुद्ध भावों से मलिन बने हुए हृदय को शुद्ध करना अति आवश्यक है। महसूस करते हो इस आवश्यकता को? सभा में से : महसूस तो करते हैं परन्तु अशक्य-सा लगता है! महाराजश्री : शक्य प्रयत्न किए बिना 'अशक्य' मान लेना, बड़ी गलती है। जिस आवश्यकता को आप तीव्रता से महसूस करते हो, शक्य प्रयत्न करते ही हो। अशुभ विचारों को दूर करने का कोई प्रयत्न किया है? अशुभ, अशुद्ध For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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