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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२५ प्रवचन-१० नहीं आता, वैसे अशुद्ध आत्मा पसन्द नहीं आती होगी तो विशुद्धि का विचार अवश्य आएगा। आत्मतत्त्व का अज्ञान : परन्तु इस संसार में कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें अशुद्ध वस्त्र जरा भी नहीं अखरते! अशुद्ध शरीर जरा भी नहीं अखरता। ऐसे मनुष्यों को आत्मा की तो कल्पना भी नहीं होती। आत्मा की कल्पना नहीं हो फिर अशुद्धि और विशुद्धि की कल्पना तो आए ही कैसे? इस कल्पना के बिना धर्म की कल्पना आए कहाँ से? परन्तु ऐसे मनुष्य भी धर्म के अनुष्ठान करते हुए दिखते हैं! या तो गतानुगतिकता होती है अथवा कोई सुख पाने की कामना होती है! आत्मसुख नहीं, भौतिक सुख पाने की कामना! इन्द्रियों के विषयसुख पाने की कामना । वैषयिक सुख पाने की कामना से जो धर्मानुष्ठान किया जाता है उसमें अभय, अद्वेष और अखेद नहीं रहता। क्योंकि सुखराग में से दुःखभय पैदा होता ही है। दुःख देनेवालों के प्रति द्वेष उत्पन्न होता ही है और सुख नहीं मिलने पर धर्मानुष्ठान में खेद आ ही जाता है। वैषयिक सुखों की स्पृहा एक बड़ी अशुद्धि है, यह बात अँची है आपके मन को? वैषयिक सुखों की स्पृहा जब तक हृदय में भरी पड़ी है तब तक अभय, अद्वेष और अखेद-ये तीन गुण प्रगट नहीं होंगे और तब तक सही धर्मआराधना नहीं कर सकोगे। आप लोग अपने आंतर-बाह्य जीवन को देखो, आपको अनेक प्रकार के भय के भत डराते नजर आयेंगे! चारों ओर द्वेष की ज्वालाएँ दिखाई देगी। हृदय में खेद और ग्लानि की गन्दगी भरी हुई दिखाई देगी। इसलिए ज्ञानी पुरुष कहते हैं वैषयिक सुखों की स्पृहा बाहर फेंक दो। 'परस्पृहा महादुःखम्' परपदार्थों की स्पृहा ही महादुःख है-यह कथन कितना यथार्थ है। आप गंभीरता से इस बात को सोचो । भय, द्वेष एवं खेद : दान देने का प्रसंग आने पर क्या होता है? आनन्द होता है या गुस्सा आता है? देना ही पड़ता है तो कितना देते हो? थोड़ा कि ज्यादा? मन में भय है : 'ज्यादा दे दूंगा तो मेरे पास क्या रहेगा? फिर मैं क्या करूँगा? यह भय है मन में, इसलिए बहुत होते हुए भी थोड़ा देते हो! दान देने का प्रसंग आने पर, यदि दाता आपकी इच्छानुसार नहीं दे तो क्या होता है? दाता पर गुस्सा आता है न? द्वेष होता है न? 'देखा बड़ा दानवीर...नाम बड़ा, काम छोटा...' ऐसा For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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