SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ D: IVIPUL\BO01.PM65 तत्त्वार्थ सूत्र + + + +अध्याय अर्थ - प्रकृति बंधके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, आयु, नाम गोत्र और अन्तराय ये आठ भेद हैं ॥ ४ ॥ इन आठों कर्मों की उत्तर प्रकृतियाँ बतलाते हैं पञ्च-नव-द्वयष्टाविंशति- चतु-द्विचत्वारिंशद्-द्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् ||७|| (96) अर्थ- ज्ञानावरण के पाँच भेद हैं। दर्शनावरण के नौ भेद हैं। वेदनीय के दो भेद हैं। मोहनीय के अठाईस भेद हैं। आयुके चार भेद हैं। नाम के बयालीस भेद हैं। गोत्र के दो भेद हैं और अन्तराय के पाँच भेद हैं ॥५॥ प्रथम ज्ञानावरण के पाँच भेद गिनाते हैं मति - श्रुतावधि - मन:पर्यय- केवलानाम् ||६|| अर्थ मति ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधि ज्ञानावरण, मन:पर्यय ज्ञानावरण और केवल ज्ञानावरण ये ज्ञानावरण के पाँच भेद हैं । शंका - अभव्य जीवके मन:पर्यय ज्ञान शक्ति और केवलज्ञान शक्ति हैं या नहीं? यदि हैं तो वह अभव्य नहीं और यदि नहीं है तो उसके मनः पर्यय ज्ञानावरण और केवल ज्ञानावरण मानना व्यर्थ है ? समाधान - द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा से अभव्य के भी दोनों ज्ञान शक्तियाँ हैं । किन्तु पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा से नहीं हैं। शंका- यदि अभव्य के भी दोनों ज्ञान शक्तियाँ हैं तो भव्य और अभव्य का भेद नहीं बनता, क्योंकि दोनों के ही मन:पर्यय ज्ञानशक्ति और केवल ज्ञान शक्ति है । समाधान- शक्ति के होने और न होने की अपेक्षा भव्य और ****++++++167+++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++++अध्याय अभव्य भेद नहीं हैं, किन्तु शक्ति के प्रकट होने की अपेक्षा से हैं। जिसके सम्यग्दर्शन आदि गुण प्रकट होंगे वह भव्य है और जिसके कभी प्रकट नहीं होंगे वह अभव्य है ॥६॥ दर्शनावरण के भेद कहते हैं चक्षुरचक्षुरवधि-केवलानां निद्रा-निद्रानिद्राप्रचलाप्रचला-प्रचला - स्त्यानगृद्धयश्च ||७|| अर्थ - चक्षु दर्शनावरण, अचक्षु दर्शनावरण, अवधि दर्शनावरण, केवल दर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचल-प्रचला, सत्यानगृद्धि, ये दर्शानवरण कर्म के नौ भेद हैं। विशेषार्थ - जो चक्षु के द्वारा वस्तु का सामान्य ग्रहण न होने दे वह चक्षु दर्शनावरण है। जो चक्षुके सिवा अन्य इन्द्रियों के द्वारा वस्तुका सामान्य ग्रहण न होने दे वह अचक्षु दर्शनावरण है । जो अवधिदर्शन को रोके वह अवधि- दर्शनावरण और जो केवल दर्शन को न होने दे वह केवल दर्शनावरण है। मद, खेद और थकान दूर करने के लिए सोना निद्रा है। गहरी नींद को, जिसमें जीव का आँखे खोलना अशक्य होता है, निद्रानिद्रा कहते हैं। रंज मेहनत और थकान के कारण बैठे-बैठे ही ऊँघने लगना प्रचला है और प्रचला की अधिकता को प्रचलाप्रचला कहते हैं। जिसके उदय से जीव सोतेसोते ही उठ कर कोई बड़ा भारी काम कर डाले उसे सत्यानगृद्धि कहते हैं ॥७॥ अब तृतीय कर्म वेदनीय के भेद कहते हैं सदसद्धेद्ये ||८|| अर्थ- वेदनीय के दो भेद हैं साता और असाता। जिनके उदय से जीव देव आदि गतियों में शारीरिक और मानसिक सुख का अनुभव +++++++++++168 +++++++++++
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy