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________________ DRIVIPULIBOO1.PM65 (81) (तत्त्वार्थ सूत्र ************** अध्याय - कहना श्रुत को झूठा दोष लगाना है । रत्नत्रय के धारी जैन श्रमणों के समुदाय को संघ कहते हैं । वे जैन साधु नंगे रहते हैं, स्नान नहीं करते; अतः उन्हें शूद्र, निर्लज्ज, अपवित्र आदि कहना संघको झूठा दोष लगाना है। जिन भगवान के द्वारा कहा हआ जो अहिंसामयी धर्म है उसकी निन्दा करना धर्म में झूठा दोष लगाना है । देवों को मांसभक्षी, मदिरा प्रेमी, परस्त्रीगामी आदि कहना देवों में झूठा दोष लगाना है । इन कामों से दर्शन मोहका आस्रव होता है ॥१३॥ आगे चारित्र मोह के आसव का कारण कहते हैंकषायोदयातीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ||१४|| अर्थ- कषाय के उदय से परिणामों में कलुषता के होने से चारित्र मोहनीय कर्म का आस्रव होता है ॥१४॥ इसके बाद आयु कर्म के आसव के कारण बतलाते हुए पहले नरकायु के आसव के कारण कहते हैं बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं नारकस्यायुष: ।।१७।। अर्थ- बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह नरकायु के आस्रव के कारण हैं ॥१५॥ तिर्यश आयु के आसव के कारण कहते हैं माया वैर्यग्योनस्य ||१६|| अर्थ- मायाचार तिर्यञ्च आयुके आस्रव का कारण है ॥१६॥ मनुष्यायु के आसव के कारण कहते हैं अल्पारम्भ-परिग्रहत्वं मानुषस्य ||१७|| अर्थ- थोड़ा आरम्भ और थोड़ा परिग्रह मनुष्यायु के आस्रव का कारण है ॥१७॥ (तत्त्वार्थ सूत्र **** ********अध्याय - मनुष्याय के आसव के और भी कारण हैं स्वभावमार्दवञ्च ||१८|| अर्थ- स्वभाव से ही परिणामों का कोमल होना भी मनुष्यायु के आस्त्रव का कारण है ॥१८॥ और भी विशेष कहते हैं नि:शील-व्रतत्वं च सर्वेषाम् ||१९|| अर्थ- यहाँ 'च' शब्द से थोड़ा आरम्भ और थोड़ा परिग्रह लेना चाहिए । अत: थोड़ा आरम्भ और थोड़ा परिग्रह होने से तथा शील और व्रतों का पालन न करने से चारों ही आयु का आस्रव होता है। शंका - क्या देवायु का भी आस्रव होता है? समाधान - हाँ, होता है। भोगभूमिया जीवों के व्रत और शील नहीं हैं फिर भी उनके देवायु का ही आस्रव होता है ॥१९॥ देवायु के आसव के कारण कहते हैंसरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जरा-बालतपांसिदैवस्य ||२०|| अर्थ-सराग, संयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बाल तप, ये देवायु के आस्त्रव के कारण हैं। रागपूर्वक संयम के पालने को सराग संयम कहते है। त्रस हिंसा का त्याग करने और स्थावर हिंसा के त्याग न करने को संयमासंयम कहते हैं । पराधीनता वश जेलखाने वगैरह में इच्छा न होते हुए भी भूख प्यास वगैरह के कष्ट को शांति पूर्वक सहना अकामनिर्जरा है। आत्मज्ञान रहित तप को बाल तप कहते हैं । इनसे देवायु का आस्त्रव होता है ॥२०॥ देवायु के आसव का और भी कारण हैं सम्यक्त्वञ्च ॥२१॥ 坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐137座本來坐坐坐坐坐坐坐坐 李李李李李李李李李李138本本坐坐坐坐坐坐坐坐
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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