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________________ DRIVIPULIBOO1.PM65 (79) (तत्वार्थ सूत्र ************अध्याय .D तत्त्वार्थ सूत्र *************अध्याय -D इसमें मूल वस्तु समरंभ, समारम्भ और आरम्भ हैं । इन तीनों में से प्रत्येक के काय, वचन और मन के भेद से तीन-तीन प्रकार हैं । इन तीन-तीन प्रकारों में से भी प्रत्येक भेद के कृत, कारित और अनुमोदना की अपेक्षा से तीन-तीन भेद हैं । इस प्रकार संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ के नौ नौ प्रकार हए । इन नौ-नौ प्रकारों में से भी प्रत्येक प्रकार चार कषायों की अपेक्षा से चार-चार प्रकारका होता है । अतः प्रत्येकके ३६-३६ भेद होने से तीनों के मिलकर १०८ भेद होते हैं । ये ही जीवाधिकरण के भेद हैं ॥८॥ इसके अनन्तर अजीवाधिकरण के भेद कहते हैंनिर्वर्तना-निक्षेप-संयोग-निसर्गा द्वि-चतुर्द्धि-त्रिभेदाः परम् ||९|| अर्थ- निर्वर्तनाके दो भेद, निक्षेप के चार भेद, संयोगके दो भेद और निसर्ग के तीन भेद, सब अजीवाधिकरण के भेद हैं। विशेषार्थ-उत्पन्न करने, रचना करने अथवा बनाने का नाम निर्वर्तना है । उसी के दो भेद हैं- मूल गुण निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तना । शरीर, वचन, मन और श्वास-निश्वास की रचना करना मूलगुण-निर्वर्तना है और लकड़ी वगैरह पर चित्र आदि बनाना उत्तर गुण-निर्वर्तना है । निक्षेप नाम रखने का है। उसके चार भेद हैं- बिना देखे वस्तु को रख देना अप्रत्यवेक्षित निक्षेप है। दुष्टतावश असावधानी से वस्तु को रखना दुःप्रमृष्ट निक्षेप है। किसी भय से या किसी अन्य कार्य करने की शीघ्रता से वस्तु को जमीन पर जल्दी से पटक देना सहसा-निक्षेप है। बिना साफ की हुई तथा बिना देखी हुई भूमि में पड़ रहना अना-भोगनिक्षेप है । अनेक वस्तुओं के मिलाने को संयोग कहते हैं। उसके दो भेद हैं- शीत और उष्ण । उपकरणों को मिला देना या शुद्ध और अशद्ध उपकरणों को मिलाना उपकरण संयोग है। सचित्त और अचित्त खानपान को एक में मिला देना भक्तपान संयोग है । निसर्ग नाम प्रवृत्ति करने का है। उसके तीन भेद हैं- दुष्टता-पूर्वक मन की प्रवृत्ति करना मनोनिसर्ग है । दष्टतापूर्वक वचन की प्रवृत्ति करना वाग्निसर्ग है और दुष्टतापूर्वक काय की प्रवृत्ति करना कायनिसर्ग है ॥९॥ इस प्रकार जीव और अजीव द्रव्य के आश्रय से ही कर्म का आस्रव होता है । अब सामान्य आस्रव को कहकर विशेष आस्रव का कथन करते हैं। प्रथम ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के आसव के कारण कहते हैंतत्प्रदोष-निव-मात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ||१०|| अर्थ-ज्ञान और दर्शन के विषय में प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादना और उपघात के करने से ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का आस्रव होता है। विशेषार्थ- कोई पुरुष मोक्ष के साधन तत्त्वज्ञान का उपदेश करता हो तो मुख से कुछ भी न कहकर हृदय में उससे ईर्ष्या आदि रखना प्रदोष है। अपने को शास्त्र का ज्ञान होते हुए भी किसी के पूछने पर यह कह देना कि मैं नहीं जानता, निह्नव है। अपने को शास्त्र का ज्ञान होते हुए भी दूसरों को इसलिए नहीं देना कि वे जान जायेंगे तो मेरे बराबर हो जायेंगे- मात्सर्य है। किसी के ज्ञानाभ्यास में विघ्न डालना अन्तराय है । सम्यग्ज्ञान का समादर न करना, उल्टे उसके उपदेष्टा को रोक देना आसादना है। सम्यग्ज्ञान को एकदम झूठा बतलाना उपघात है । इनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का आस्रव होता है। ॥१०॥ आगे असाता वेदनीय कर्म के आसव के कारण कहते हैंदु:ख-शोक-तापाक्रन्दन-वध-परिदेवनान्यात्म परोभयस्थानान्यसद्धेद्यस्य ।।११।। 坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐133座本來坐坐坐坐坐坐坐坐
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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