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________________ D:\VIPUL\B001.PM65 (77) तत्त्वार्थ सूत्र ***** अध्याय शंका- जो शुभ कर्म का कारण है वह शुभ योग है और जो पाप कर्मों के आगमन में कारण है वह अशुभ योग है। यदि ऐसा लक्षण किया जाय तो क्या हानि है? समाधान - यदि ऐसा लक्षण किया जायगा तो शुभ योग का अभाव ही हो जायेगा; क्योंकि आगम में लिखा है कि जीव के आयु कर्म के सिवा शेष सात कर्मों का आस्रव सदा होता रहता है। अतः शुभ योग से भी ज्ञानावरण आदि पापकर्मों का बन्ध होता है। इसलिये उपर का लक्षण ही ठीक है। शंकर -जब शुभ योग से भी घातिकर्मों का बन्ध होता है तो सूत्रकार ने ऐसा क्यों कहा कि शुभयोग से पुण्यकर्म का बन्ध होता है ? समाधान- यह कथन घाति कर्मों की अपेक्षा से नहीं है। किन्तु अघाति कर्मोंकी अपेक्षा से है। अघातिया कर्म के दो भेद हैं- पुण्य और पाप । सो उनमें से शुभ योग से पुण्य कर्म का आस्रव होता है और अशुभ से पाप कर्म का आस्रव होता है। शुभयोग के होते हुए भी घातिया कर्मों का अस्तित्व रहता है उनका उदय भी होता है उसी से घातिया कर्मों का बन्ध होता है ॥ ३ ॥ आगे स्वामी की अपेक्षा से आसव के भेद कहते हैंसकषायाकषाययो: साम्परायिकेर्यापथयो: ||४|| अर्थ- कषाय सहित जीवों के साम्परायिक आस्त्रव होता है । और कषाय रहित जीवों के ईर्यापथ आस्त्रव होता है । विशेषार्थ- स्वामी के भेद से आस्रव में भेद हैं। आस्रव के स्वामी दो हैं- एक सकषाय जीव, दूसरे कषाय रहित जीव। जैसे वट आदि वृक्षों की कषाय यानी गोंद वगैरह चिपकाने में कारण होती है उसी तरह क्रोध आदि भी आत्मा से कर्मों को चिपटा देते हैं इसलिए उन्हें कषाय कहते हैं। तथा जो आस्रव संसारका कारण होता है उसे साम्परायिक आस्रव कहते हैं और जो आस्त्रव केवल योग से ही होता है उसे ईर्यापथ आस्त्रव कहते हैं। इस ++++++129+++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +***** ***** में अध्याय ईर्यापथ आस्त्रव के द्वारा जो कर्म आते हैं उनमें एक समय की भी स्थिति नहीं पड़ती; क्योंकि कषाय के न होने से कर्म जैसे ही आते हैं वैसे ही चले जाते है। इसीसे कषाय से सहित जीवों के जो आस्रव होता है उसका नाम साम्परायिक है क्योंकि वह संसार का कारण है। कषाय रहित जीवों के अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक जो स्त्र होता है वह केवल योग से ही होता है इसलिए उसे ईर्ष्यापथ आस्रव कहते हैं ॥४॥ साम्परायिक आसव के भेद कहते हैं इन्द्रिय- कषायव्रतक्रियाः पञ्च चतु:- पञ्चपञ्च विसंतिसंख्या: पूर्वस्य भेदाः ||५|| अर्थ- इन्द्रिय पाँच, कषाय चार, अव्रत पाँच, क्रिया पच्चीस, ये सब साम्परायिक आस्रव के भेद हैं। विशेषार्थ- पाँच इन्द्रियाँ पहले कह आये हैं। चार कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ हैं। हिंसा, असत्य वगैरह पाँच अव्रत आगे कहेंगे । यहाँ पच्चीस क्रियाएं बतलाते हैं । देव, शास्त्र और गुरु की पूजा आदि करने रूप जिन क्रियाओं से सम्यक्त्वकी पुष्टि होती है उन्हें सम्यक्त्व क्रिया कहते हैं। कुदेव आदिकी पूजा आदि करने रूप जिन क्रियाओं से मिथ्यात्वकी वृद्धि होती है उन्हें मिथ्यात्व क्रिया कहते हैं । काय आदि से गमनआगमन करना प्रयोग क्रिया है। संयमी होते हुए असंयम की ओर अभिमुख होना समादान क्रिया है जो क्रिया ईर्यापथ में निमित्त होती है वह ईर्यापथ क्रिया है ॥५॥ क्रोध के आवेश में जो क्रिया की जाती है वह प्रादोषिकी क्रिया है। दुष्टतापूर्वक उद्यम करना कायिकी क्रिया है। हिंसा के उपकरण लेना आधिकरणिकी क्रिया है। जो क्रिया प्राणियों को दुःख पहुँचाती है वह पारितापिकी क्रिया है। किसीकी आयु, इन्द्रिय, बल आदि प्राणों का वियोग करना यानी जान ले लेना प्राणातिपातिकी क्रिया है ॥१०॥ प्रमादी +++++++++++130+++++++++++
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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