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________________ DRIVIPULIBO01.PM65 (52) तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - और पञ्चेन्द्रिय । एकेन्द्रियों मे शुद्ध पृथ्वी कायिक जीवों की आयु बारह हजार वर्ष होती है । खर पृथ्वि काय की आयु बाईस हजार वर्ष होती है। जलकायिक जीवों की आयु सात हजार वर्ष, वायु कायकी तीन हजार वर्ष और वनस्पति काय की दस हजार वर्ष उत्कृष्ट आयु होती है। अग्नि कायिक की आयु तीन दिन रात होती है। विक्लेन्द्रियों में , दो इन्द्रियों की उत्कृष्ट आयु बारह वर्ष, तेइन्द्रियों की उनचास रातदिन और चौइन्द्रियों की छह मास होती है। पञ्चेन्द्रियों में जलचर जीवों की उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटि, गोधा नकुल वगैरह की नौ पूर्वाङ्ग, सर्पो की बयालीस हजार वर्ष, पक्षियों की बहत्तर हजार वर्ष और चौपायों की तीन पल्य होती है। तथा सभी की जधन्य आयु एक अन्तर्मुहुर्त की होती है ॥ ३९ ॥ इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ (तत्त्वार्थ सूत्र ##############अध्याय -D सौ वर्ष के बाद एक एक रोम निकालने पर जितने काल में वह गड्ढ़ा रोमों से खाली हो जाये, उतने काल को व्यवहार पल्योपम काल कहते हैं । व्यवहार पल्य के रोमों में से प्रत्येक रोम के बुद्धि के द्वारा इतने टुकड़े करो जितने असंख्यात कोटि वर्ष के समय होते हैं। फिर उन रोमों से एक योजन लम्बे चौड़े और एक योजन गहरे गोल गड्ढ़े को भर दो । उसे उद्धार पल्य कहते हैं। उनमें से प्रति समय एक एक रोम के निकालने पर जितने काल में वह गड्ढ़ा रोमों से शून्य हो जाये उतने काल को उद्धार पल्योपम कहते हैं । उद्धार पल्य रोमों में से प्रत्येक रोम के कल्पना के द्वारा पुनः इतने टुकड़े करो जितने सो वर्ष के समय होते हैं। और उन रोमो से पुनः उक्त विस्तारवाले गड्ढ़े को भर दो । उसे अद्धा पल्य कहते हैं । उस अद्धा पल्य के रोमों में से प्रति समय एक-एक रोम निकालने पर जितने काल में वह गड्ढ़ा खाली हो उतने काल को अद्धा पल्योपम कहते हैं। इन तीन पल्यों में से पहला व्यवहार पल्य तो केवल दो पल्यों के निर्माण का मूल है, उसी के आधार पर उद्धार पल्य और अद्धा पल्य बनते हैं। इसीसे उसे व्यवहार पल्य नाम दिया गया है। उद्धार पल्य के रोमों के द्वारा द्वीप और समुद्रो की संख्या जानी जाती है। अद्धा पल्य द्वारा नारकियों की , तिर्यञ्चों की, देवों और मनुष्यों की आयु, कर्मों की स्थिति आदि जानी जाती है। इसी से इसे अद्धापल्य कहते है, क्योकि 'अद्धा' नाम काल का है। दस कोड़ाकोड़ी अद्धापल्य का एक अद्धा सागर होता है। दस अद्धासागर का एक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी काल होता है॥३८॥ अब तिर्यञ्चों की स्थिति बतलाते हैं तिर्यग्योनिजानां च ||३९|| अर्थ-तिर्यञ्चों की भी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य और जधन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त है। विशेषार्थ-तिर्यञ्च तीन प्रकार के होते हैं- एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय उपाध्याय परमेष्ठी का देवगढ़ में स्थित एक प्राचीन शिल्प
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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