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________________ DRIVIPULIBOO1.PM65 (43) (तत्त्वार्थ सूत्र ************** अध्याय - परिणमन भी वहां के क्षेत्र की विशेषता के निमित्त से अति दुःख का ही कारण होता है। उनका शरीर भी अत्यंत अशुभ होता है। हुण्डक संस्थान के होने से देखने में बड़ा भयंकर लगता है। पहली पृथ्वी के अंतिम पटल में नारकियों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष, तीन हाथ, छ: अंगुल होती है। नीचे-नीचे प्रत्येक पृथ्वी में दूनी-दूनी ऊँचाई होती जाती है । इस तरह सातवें नरक में पाँचसौ धनुष ऊँचाई होती है। तथा शीत उष्ण की भयंकर वेदना भी है। पहली से लेकर चौथी पथ्वी तक सब बिल गर्म ही हैं। पाँचवीं में ऊपर के दो लाख बिल गर्म हैं और नीचे के एक लाख बिल ठंडे हैं। छठी और सातवीं के बिल भयंकर ठंडे हैं। ये नारकी विक्रिया भी बुरी से बुरी ही करते हैं ॥३॥ अब नारकी जीवों को दुःख कौन देता है सो बतलाते हैं परस्परोदीरित-दु:खा: ||४|| अर्थ- इसके सिवा नारकी जीव आपस मे ही एक-दूसरे को दुःख देते हैं। विशेषार्थ-जैसे यहाँ कुत्तों में जातिगत वैमनस्य देखा जाता है वैसे ही नारकी जीव भी कुअवधिज्ञान के द्वारा दूर से ही नारकियों को देखकर और उनको अपने दुःख का कारण जानकर दुखी होते हैं । फिर निकट आनेपर परस्पर के देखने से उनका क्रोध भड़क उठता है । और अपनी विक्रिया के द्वारा बनाये गये अस्त्र-शस्त्रों से आपस में मार काट करने लगते हैं। इस तरह एक दूसरे के टुकड़े-टुकड़े कर डालने पर भी उनका मरण अकाल में नहीं होता ॥४॥ दुरव के और भी कारण बतलाते हैंसंक्लिष्टासुरोदीरित-दु:खाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ||७|| अर्थ-संक्लेश परिणाम वाले जो अम्बावरीष जाति के असुर कुमार तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - देव हैं, वे तीसरी पृथ्वी तक जा कर नारकियों को दुःख देते हैं, उन्हें आपस में लडाते हैं ॥५॥ अब नारकियों की आयु बतलाते हैं तेष्वेक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्वानां परा स्थिति: ||६|| अर्थ - नारकी जीवों की उत्कृष्ट आयु पहली पृथ्वी में एक सागर, दूसरी में तीन सागर, तीसरी में सात सागर, चौथी में दश सागर, पाँचवी में सत्रह सागर, छठी में बाईस सागर और सातवीं में तैतीस सागर होती है।६॥ इस तरह अघोलोक का वर्णन किया । आगे मध्य लोक का वर्णन करते हैं । मध्य लोक को तिर्यग्लोक भी कहते हैं, क्योकि स्वयंभूरमण समुद्र तक एक दूसरे को घेरे हुए असंख्यात द्वीप समुद्र तिर्यक् (आजूबाजू) रूप से स्थित हैं। इसी से मध्य लोक का वर्णन प्रारंभ करते हुए सूत्रकार पहले इसी बात की चर्चा करते हैंजम्बूद्धीप-लवणोदादय: शुभनामानो द्वीप समुद्राः ||७|| अर्थ- मध्यलोक मे जम्बूद्वीप और लवण समुद्र वगैरह अनेक द्वीप और समुद्र हैं । अर्थात् पहला द्वीप जम्बूद्वीप है और उसके बाद पहला समुद्र लवण-समुद्र है। लवण समुद्र के बाद दूसरा द्वीप धातकी-खण्ड है। और धातकी खण्ड के बाद दूसरा समुद्र कालोदधि है । कालोदधि के बाद तीसरा द्वीप पुष्करवर है और उसके बाद तीसरे समुद्र का नाम भी पुष्करवर है। इसके आगे जो द्वीप का नाम है वही उसके बाद के समुद्र का नाम है। सबसे अन्तिम द्वीप और समुद्र का नाम स्वयंभूरमण है ॥७॥ आगे इन द्वीप-समुद्रों का विस्तार वगैरह बतलाते हैं - द्धि-द्धि-विष्कम्भा: पूर्व-पूर्व-परिक्षेपिणो वलयाकृतयः।।८।। अर्थ- इन द्वीप और समुद्रों का विस्तार, आगे आगे दूना दूना होता ******* ***61D **********
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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