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________________ D:IVIPULIBO01.PM65 (41) (तत्वार्थ सूत्र अध्याय :D ततीय अध्याय - (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय .D किया जाता है- किसी जीव ने मनुष्यायु का बन्ध किया और उसकी स्थिति सौ वर्ष की बांधी । सो आयु कर्म का जितना प्रदेश बन्ध किया, सौ वर्ष के जितने समय होते हैं उतने समयों में उन कर्म परमाणुओं की निषेक रचना तत्काल हो गयी । जब वह मरकर मनुष्य पर्याय में उत्पन्न हुआ तो प्रति समय आयु कर्म का एक एक निषेक उदय में आकर खिरने लगा। यदि इसी तरह क्रम से एक एक समय में एक एक आयु का निषेक उदय में आता रहता तो सौ वर्ष में जाकर पूरे निषेक खिरते और इस तरह वह जीव पूरे सौ वर्ष तक मनुष्य पर्याय में रहकर मरण करता । किन्तु बावन वर्ष की उम्र तक तो एक एक समय में एक एक निषक की निर्जरा होती रही। बाद को पापकर्म का उदय आ जाने से किसी ने उसे जहर दे दिया अथवा उसने स्वयं जहर खा लिया, या कोई भयानक रोग हो गया, अथवा किसी ने मार डाला तो अड़तालीस वर्षों में उदय आनेवाले निषेकों की अन्तमुहूर्त में उदीरणा हो जाती है । यह अकाल मरण कहलाता है। किन्तु यदि किसी ने बावन वर्ष की आयु बाँधी हो और वह बावन वर्ष की आयु पूरी करके मरे तो वह अकाल मरण नहीं है ॥५३॥ शंका - जैसे कर्म भूमि के मनुष्यों और तिर्यन्चों की आयु घट जाती है वैसे ही आयु बढ़ भी सकती है या नहीं ? समाधान - जो आयु हम भोग रहे हैं वह बढ़ नहीं सकती; क्योंकि उस आयु का बन्ध पूर्व जन्म में हो चुका है। अतः उसमें अब बढ़ने की गुंजाइश नहीं है, हां, घट जरूर सकती है। इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे द्वितीयोऽध्यायः।। अब जीवों का आधार बतलाते हुए, पहले अधोलोक का वर्णन करते हैंरख-शर्करा-बालुका-पङ्क-धूम-तमो-महातमः प्रभा-भूमयो। घनाम्बु-वाताकाश-प्रतिष्ठा: सप्ताधोडधः ||१|| विशेषार्थ-रलप्रभा,शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातमःप्रभा ये सात भूमियाँ नीचे-नीचे हैं । ये भूमियाँ घनोदधिवात-वलय के आधार हैं; घनोदधि वातावलय घनवात वलय का आधार है; घन वातवलय तनु वातवलय का आधार है और तनु वातवलय आकाश का आधार है। तथा आकाश अपना ही आधार है; क्योंकि आकाश सबसे बड़ा और अनन्त है। इसलिए उसका आधार कोई दूसरा नहीं हो सकता। विशेषार्थ- रत्नप्रभा नाम की पहली पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। उसकी मोटाई के तीन भाग हैं। ऊपर का खरभाग सोलह हजार योजन मोटा है। उसके नीचे का पंक भाग चौरासी हजार योजन मोटा है और उसके नीचे का अब्बहुल भाग अस्सी हजार योजन मोटा है। खर भाग के ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर बीच के चौदह हजार मोटे और एक राजु प्रमाण लम्बे चौड़े भागों में राक्षसों के सिवा शेष सात प्रकारके व्यन्तर और असुर कुमारों के सिवा शेष नौ प्रकार के भवनवासी देव रहते हैं । पंक भाग में राक्षस और असुर कुमार रहते हैं। और अब्बहुल भाग में प्रथम नरक है जिसमें नारकी रहते हैं । पहली पृथ्वी के नीचे कुछ कम एक राजु अन्तराल छोड़ कर दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी है उसकी मोटाई बत्तीस हजार योजन है। उसके नीचे कुछ कम एक राजु अन्तराल छोड़कर तीसरी बालुका प्रभा पृथ्वी है। वह aalini ###########58 ********
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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