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________________ D:\VIPUL\B001.PM65 (22) (तत्त्वार्थ सूत्र ++******++++++++अध्याय आगे क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान किसके होता है, यह बतलाते हैं क्षयोपशमनिमित्त: षड्विकल्पः शेषाणाम् ||२२|| अर्थ- क्षयोपशम निमित्त नामक अवधिज्ञान छ: प्रकार का होता है और वह मनुष्य और तिर्यन्चों के होता है। विशेषार्थ अवधि ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम जिसमें निमित्त हैं उसे क्षयोपशम निमित्त अवधिज्ञान कहते है । यद्यपि सभी अवधिज्ञान क्षयोपशम के निमित्त से होते हैं फिर भी इस अवधिज्ञान का नाम क्षयोपशम निमित्त इसलिए रखा गया कि इसके होने में क्षयोपशम ही प्रधान कारण है, भव नहीं । इसीसे इसे गुणप्रत्यय भी कहते हैं । इसके छः भेद हैअनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित। अवधिज्ञान अपने स्वामी जीव के साथ साथ जाता है उसे अनुगामी कहते हैं। इसके तीन भेद हैं क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी और उभयानुगामी । जिस जीव के जिस क्षेत्र में अवधिज्ञान प्रकट हुआ वह जीव यदि दूसरे क्षेत्र में जाय तो उसके साथ जाय और छूटे नहीं, उसे क्षेत्रानुगामी कहते हैं । जो अवधिज्ञान परलोक में भी अपने स्वामी जीव के साथ जाता है वह भवानुगामी है। जो अवधि अन्य क्षेत्र में भी साथ जाता है और अन्य भव में भी साथ जाता है वह उभयानुगामी है। जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीव के साथ नहीं जाता वह अननुगामी है। इसके भी तीन भेद हैं जो पूर्वोक्त तीन भेदों से उल्टे हैं । विशुद्ध परिणामों की वृद्धि होने से जो अवधिज्ञान बढ़ता ही जाता है उसे वर्धमान कहते हैं। संक्लेश परिणामों की वृद्धि होने से जो अवधिज्ञान घटता ही जाता है उसे हीयमान कहते हैं । जो अवधिज्ञान जिस मर्यादा को लेकर उत्पन्न हुआ हो उसी मर्यादा में रहे, न घटे और न बढ़े उसे अवस्थित कहते हैं और जो घटे-बढ़े उसे अनवस्थित कहते हैं ॥ २२ ॥ ****++++++19+++++++ *******+अध्याय तत्त्वार्थ सूत्र + अब मन:पर्यय ज्ञान का कथन करते हैं ऋजु - विपुलमती मन:पर्ययः ||२३|| अर्थ- मन:पर्यय ज्ञान के दो भेद हैं- ऋजुमति और विपुलमति । दूसरे के मन में सरल रूप मे स्थित रूपी पदार्थ को जो ज्ञान प्रत्यक्ष जानता है उसे ऋजुमित मन:पर्यय कहते हैं और दूसरे के मन मे सरल अथवा जटिल रूप में स्थित रूपी पदार्थ को जो ज्ञान प्रत्यक्ष जानता है, उसे विपुलमति मन:पर्यय कहते हैं। विशेषार्थ - देव, मनुष्य और तिर्यंच, सभी के मन मे स्थित विचार को मन:पर्यय ज्ञान जानता है, किन्तु वह विचार रूपी पदार्थ अथवा संसारी जीव के विषय में होना चाहिये। अमूर्तिक द्रव्यों और मुक्तात्माओं के विषय में जो चिन्तन किया गया होगा, उसे मन:पर्यय नही जान सकता। तथा उन्हीं जीवों के मन की बात जान सकता है जो मनुष्य लोक की सीमा के अन्दर हों । इतना विशेष है कि मनुष्यलोक तो गोलाकार है किन्तु मन:पर्यय ज्ञान का क्षेत्र गोलाकार न होकर पैंतालीस लाख योजन लम्बा चौडा चौकोर है। उसके दो भेदों में से ऋजुमति तो केवल उसी वस्तु को जान सकता है जिसके बारे मे स्पष्ट विचार किया गया हो अथवा मन-वचन और काय की चेष्टा के द्वारा जिसे स्पष्ट कर दिया गया हो । किन्तु विपुलमति मन:पर्यय चिन्तित, अचिन्तित और अर्ध-चिन्तित भी जान लेता है ॥ २३ ॥ अब मन:पर्यय के दोनो भेदों में विशेषता बतलाते हैं विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ||२४|| अर्थ- ऋजुमति और विपुलमति में विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा से विशेषता है । मन:पर्यय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो आत्मा में उज्जवलता होती है वह विशुद्धि है, और संयम परिणाम की +++++++++++20 ++++++ ******
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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