SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ DRIVIPULIBOO1.PM65 (17) (तत्वार्थ सूत्र ********* **** अध्याय - फिर उसी पहली दशा में आ जाने पर दोनों के बीच में जितना काल रहता है वह विरह काल कहलाता है। इसी को अन्तर कहते हैं । औपशमिक आदि को भाव कहते हैं। एक दूसरे की अपेक्षा तुलना करके एक को न्यून दूसरे को अधिक बतलाना अल्पबहुत्व है। इन आठों के द्वारा भी सम्यग्दर्शन आदि तथा जीव आदि का ज्ञान होता है ॥८॥ अब ज्ञान के भेद बतलाते हैंमति-श्रुतावधि-मन:पर्याय केवलानि ज्ञानम् ||९|| अर्थ- मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान हैं। पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा पदार्थों का जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं । मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ से सम्बन्ध रखनेवाले किसी दूसरे पदार्थ के ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। जैसे, मतिज्ञान के द्वारा घट को जान कर अपनी बुद्धि से यह जानना कि यह घट पानी भरने के काम का है, अथवा उस एक घट के समान या असमान जो अन्य बहुत से 'घट' हैं, उनको जान लेना श्रुतज्ञान है । इस श्रुतज्ञान के दो भेद हैं- अनक्षरात्मक और अक्षरात्मक । कर्ण इन्द्रिय के सिवा बाकी की चार इन्द्रियों के द्वारा होने वाले मतिज्ञान के पश्चात् जो विशेष ज्ञान होता है वह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । जैसे, स्वयं घट को जानकर यह जानना कि यह घट अमुक काम में आ सकता है; और कर्ण इन्द्रिय के द्वारा होनेवाले मतिज्ञान के पश्चात् जो विशेष ज्ञान होता है वह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । जैसे, "घट" इस शब्द को सुनकर कर्णेन्द्रिय के द्वारा जो मतिज्ञान हुआ उसने केवल शब्द मात्र को ही ग्रहण किया। उसके बाद उस घट शब्द के वाच्य घड़े को देखकर यह जानना कि यह घट है और यह पानी भरने के काम का है. यह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिए हुए रूपी पदार्थ को प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। मनुष्य लोक में वर्तमान जीवों के मन में स्थित जो रूपी पदार्थ हैं, जिनका तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - उन जीवों ने सरल रूप से या जटिल रूप से विचार किया है, या विचार कर रहे हैं अथवा भविष्य में विचार करेंगे, उनको स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को मनः पर्यय ज्ञान कहते हैं और सब द्रव्यों की सब पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं ॥९॥ ऊपर प्रमाण और नयों के द्वारा वस्तु का ज्ञान होना बतलाया है। किन्तु कोई कोई मतावलम्बी इन्द्रिय और पदार्थ का जो सन्निकर्ष-सम्बन्ध होता है उसी को प्रमाण मानते हैं, कोई इन्द्रिय को ही प्रमाण मानते हैं। अत: ऊपर कहे गये ज्ञानों का ही प्रमाण बतलाने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैं तत्प्रमाणे ||१०|| अर्थ- ऊपर कहे मति आदि ज्ञान ही प्रमाण हैं, अन्य कोई प्रमाण नहीं है। विशेषार्थ- सूत्रकार का कहना है कि ज्ञान ही प्रमाण है, सन्निकर्ष अथवा इन्द्रिय प्रमाण नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ का जो सम्बन्ध होता है उसे सन्निकर्ष कहते हैं । किन्तु सूक्ष्म पदार्थ जैसे परमाणु, दूरवर्ती पदार्थ जैसे सुमेरु और अन्तरित पदार्थ जैसे राम-रावण आदि के साथ इन्द्रिय का सन्निकर्ष नहीं हो सकता; क्योंकि इन्द्रिय का सम्बन्ध तो सामने वर्तमान स्थिर स्थल पदार्थ के साथ ही हो सकता है। अतः सन्निकर्ष को प्रमाण मानने से इन पदार्थों का कभी ज्ञान ही नहीं हो सकेगा । इसके सिवा सभी इन्द्रियाँ पदार्थ को छूकर नहीं जानती हैं । मन और चक्षु जिसको जानते हैं उससे दूर रहकर ही उसे जानते हैं। अतः ज्ञान ही प्रमाण है, सन्निकर्ष अथवा इन्द्रिय प्रमाण नहीं है। ___ आगे प्रमाण के दो भेद बतलाये हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन्हीं में दूसरों के द्वारा माने गये प्रमाण के सब भेदों का अन्तर्भाव हो जाता है। इसी से "प्रमाणे" यह द्विवचन का प्रयोग सूत्र में किया है। ॥१०॥ * *** *** *** # 100 *** *****
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy