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________________ DRIVIPULIBO01.PM65 (118) (तत्त्वार्थ सूत्र **** *** ****अध्याय - तत्त्वार्थ सूत्र **********# अध्याय - प्रतिसेवना नही होती; क्योंकि त्यागी हुई वस्तु का सेवन करने से प्रतिसेवना होती है, सो ये करते नहीं हैं । तीर्थ यानी सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में पाँचो प्रकार के निर्ग्रन्थ पाये जाते हैं । लिंग के दो भेद हैं - द्रव्यलिंग और भावलिंग । भावलिंग की अपेक्षा तो पाँचो ही निग्रॅन्थ भावलिंगी हैंक्योंकि सभी सम्यग्दृष्टि और संयमी होते हैं । द्रव्य लिंग की अपेक्षा सभी निर्ग्रन्थ दिगम्बर होते हुए भी स्नातक के पीछी कमण्डलु उपकरण नहीं होते शेष के होते हैं। अतः द्रव्य लिंग में थोड़ा अन्तर पड़ जाता है। पुलाक के तीन शुभ लेश्याएँ भी होती हैं क्योकि उपकरणो में आसक्ति होने से कभी अशभ लेश्याएँ भी हो सकती हैं। कषाय, कशील के कष्ण और नील के सिवा बाकी की चार लेश्याएं होती हैं। निर्ग्रन्थ और स्नातक के एक शुक्ल लेश्या ही होती है। अयोग केवली की लेश्या ही नहीं होती। उपपाद पुलाक मुनि भूमि से अधिक बकुश और प्रतिसेवना कुशील बाईस सागर की स्थितिवाले आरण और अच्युत स्वर्ग मे उत्पन्न होते हैं। कषाय कुशील और ग्यारहवें गुणस्थान वाले निर्ग्रन्थ तैंतीस सागर की स्थितिवाले सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न होते हैं । इन सबकी उत्पति कम से कम सौधर्म कल्प में होती है, और स्नातक तो मोक्ष जाता है। इसी तरह संयम के स्थानों की अपेक्षा भी इनमें अन्तर होता है ॥४६॥ इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रेनवमोऽध्यायः ॥९॥ दशम अध्याय अब अन्तिम तत्त्व मोक्ष का कथन किया जाता है। किन्तु मोक्ष की प्राप्ति केवल ज्ञान पूर्वक होती है अतः पहले केवल ज्ञान की उत्पत्ति का कारण बतलाते हैं - मोहक्षयात्ज्ञान-दर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ।।१।। अर्थ- मोहनीय कर्म के क्षय से और फिर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का एक साथ क्षय होने से केवल ज्ञान प्रकट होता है। सारांश यह है कि पहले मोहनीय कर्म को क्षय करके अन्तमुहुर्त तक क्षीण कषाय नाम के गुणस्थान से जीव रहता है। फिर उसके अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म को एक साथ नष्ट करके केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेता है । इसी से 'मोहक्षयात्' पद अलग लिखा है ॥१॥ अब मोक्ष का लक्षण और मोक्ष के कारण बतलाते हैंबन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्सन-कर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ||शा अर्थ- बन्ध के कारणों का अभाव होने से तथा निर्जरा से समस्त कर्मों का अत्यन्त अभाव हो जाना मोक्ष है। विशेषार्थ-मिथ्यादर्शन आदि कारणों का अभाव हो जाने से नये कर्मों का बन्ध होना रुक जाता है और तप वगैरह के द्वारा पहले बंधे हुए कर्मों की निर्जरा हो जाती है । अत: आत्मा समस्त कर्म बन्धनों से छूट जाता है। इसीका नाम मोक्ष है। सो कर्म का अभाव दो प्रकार से होता है। कुछ कर्म तो ऐसे हैं जिनका अभाव चरम शरीरी के स्वयं हो जाता है। जैसे, नरकायु, तिर्यञ्चायु और देवायु का सत्व चरम शरीरी के नहीं होता अतः इन तीन प्रकृतियों का अभाव तो बिना यत्न के ही रहता है शेष के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। अत: चौथे, पाँचवे, छठे और सातवें गुणस्थान में से किसी एक गुणस्थान में मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों का क्षय 本本本本本本本本本本 212座本本本本本本本本本本 हमारे भावों को व्यक्त करता है मस्तिष्क नाड़ी तंत्र विचार से भाव नहीं बनता किन्तु भाव से विचार बनता है। जिस लेश्या का भाव होता है, वैसा ही विचार बन जाता है। भाव अंतरंग तंत्र है और विचार कर्म तंत्र । इसलिए हमें विचारों की अपेक्षा भावों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। 坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐211座本來坐坐坐坐坐坐坐坐
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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