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________________ D:IVIPULIB001.PM65 (103) तत्त्वार्थ सूत्र * *** ******###अध्याय .) प्रश्न है कि उनका स्वभाव कैसा है ? उसका उत्तर है कि वे सूक्ष्म होते हैंस्थूल नहीं होते, तथा जिस आकाश प्रदेश में आत्म प्रदेश रहते हैं उसी आकाश प्रदेश मे कर्म योग्य पुदगल भी ठहर जाते हैं । पाँचवा प्रश्न है कि वे किस आधार से रहते हैं ? इसका उत्तर है कि कर्म प्रदेश आत्मा के किसी एक ही भाग में आकर नहीं रहते । किन्तु आत्मा के समस्त प्रदेशों में ऐसे घुलमिल जाते हैं जैसे दूध मे पानी । छठा प्रश्न है कि उनका परिमाण कितना होता है? तो उत्तर है कि अनंतानन्त परमाणु प्रतिसमय बंधते रहते हैं। सारांश यह है कि एक आत्मा के असंख्यात प्रदेश होते हैं। प्रत्येक प्रदेश मे प्रति समय अनन्तानन्त प्रदेशी पुदगल स्कन्ध बन्ध रूप होते रहते हैं । यही प्रदेश बन्ध है ॥२४॥ अब कर्मों की पुण्य प्रकृतियों को बतलाते हैं सद्धेद्य-शुभायुनाम-गोत्राणि पुण्यम् ||२७|| अर्थ -साता वेदनीय, तिर्यगायु, मनुष्यायु और देवायु ये तीन आयु एक उच्चगोत्र और नाम कर्म की सैंतीस प्रकृतियाँ ये बयालीस पुण्य प्रकृतियाँ हैं। नाम कर्म की सैंतीस प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं - मनुष्य गति, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, पाँच शरीर, तीन अंगोपांग, समचतुरस्त्रसंस्थान, वज्र, वृषभनाराच संहनन, प्रशस्त, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, देव गत्यानुपूर्वी, अनुरुलधु, परघात, उछवास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर,शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, निर्माण और तीर्थङ्गर । ये सब पुण्य प्रकृतियाँ हैं ॥२५॥ अब पाप प्रकृतियों को कहते हैं - अतोन्यत् पापम् ||२६|| अर्थ - इन पुण्य कर्म प्रकृतियों के सिवा शेष कर्मप्रकृतियाँ पाप तत्त्वार्थ सूत्र ******* ***** अध्याय - प्रकृतियाँ हैं । सो ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की नौ, मोहनीय की छब्बीस, अन्तराय की पाँच, ये घातियाकर्मों की प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियाँ हैं। नरक गति, तिर्यञ्च गति, एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्ण गन्ध, रस, स्पर्श, नरक गत्यानुपूर्व्य, तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति ये नाम कर्म की चौंतीस प्रकृतियाँ, असाता वेदनीय, नरकायु और नीच गोत्र । इस तरह बयासी प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियाँ हैं। विशेषार्थ - घातिया कर्म तो चारों अशुभ ही हैं और अघातिया कर्मों की प्रकृतियाँ पुण्य रूप भी हैं और पाप रूप भी हैं। उनमे भी स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण पुण्यरूप भी हैं और पापरूप भी हैं । इसलिए उनकी गणना पुण्य प्रकृतियों में भी की जाती है और पाप प्रकृतियों में भी की जाती है। इससे ऊ पर गिनाई गयी पुण्य और पाप प्रकृतियों का जोड़ ८२+४२-१२४ होता है। किन्तु बन्ध प्रकृतियाँ १२० ही है। जबकि आठों कर्मों की कुल प्रकृतियाँ ५+९+२+२८+४+१३+२+५=१४८ हैं। इनमे पाँच बंधन और पाँच संघात तो शरीर के साथी हैं- अर्थात यदि औदारिक शरीर का बन्ध होगा तो औदारिक बन्धन और औदारिक संघात का अवश्य बन्ध होगा। इसलिए बन्ध प्रकृतियों में पाँच शरीरों का ही ग्रहण किया है। अतः पाँच बन्धन और पाँच संघात ये १० प्रकृतियाँ कम हुई। वर्ण गन्ध आदि के बीस भेदों में से केवल वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन -चार को ही ग्रहण किया है, इससे १६ प्रकृतियाँ ये कम हुई । तथा दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों में से केवल एक मिथ्यात्व का ही बन्ध होता है। अतः दो ये कम हुई । इस तरह अठाईस प्रकृतियों के कम होने से बन्ध योग्य प्रकृतियाँ १२० ही रहती हैं। इस तरह बन्ध का वर्णन समाप्त हुआ ॥२६॥ इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रेऽष्टमोध्यायः ॥८॥
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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