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________________ वाणी, व्यवहार में... ६९ कोई होता नहीं। यह मैंने 'ज्ञान' दिया है, जिन्हें 'ज्ञान' हो, उनकी वाणी उपयोगपूर्वक निकल सकती है। वह पुरुषार्थ करे तो उपयोगपूर्वक हो सकता है, क्योंकि 'पुरुष' होने के बाद का पुरुषार्थ है। 'पुरुष' होने से पहले पुरुषार्थ है नहीं। प्रश्नकर्ता : इस भव की समझ किस प्रकार से वाणी सुधारने में हेल्प करती है। वह उदाहरण देकर जरा समझाइए । दादाश्री : अभी तुझे एक गाली दे तो भीतर असर हो जाता है। थोड़ा-बहुत मन ही मन में बोलता भी है कि 'तुम नालायक हो।' पर उसमें तू नहीं है, जुदा हो गया इसलिए तू इसमें नहीं है। आत्मा जुदा हो गया है, इसलिए वह एकाकार नहीं होता। यानी कोई मनुष्य बीमार हो और बोले, वैसा कर देता है। प्रश्नकर्ता : अब जिसका अहंकार नहीं गया, आत्मा जुदा नहीं हुआ, उसे उसकी समझ हेल्प करती है? दादाश्री : हाँ, पर वह जैसा है वैसा बोल दे और बाद में पछतावा करे तब । वाणी सुधारनी हो तो लोगों को पसंद नहीं हो वैसी वाणी बंद कर दो। और फिर किसीकी भूल नहीं निकाले, टकराव नहीं करे, तो भी वाणी सुधर जाती है। प्रश्नकर्ता : अब वाणी में सुधार लाना हो तो किस तरह करना चाहिए? दादाश्री : वाणी अपने आपसे सुधारी नहीं जा सकती, वह टेपरिकॉर्ड हो चुकी है। प्रश्नकर्ता : हाँ, इसलिए ही न! अर्थात् व्यस्थित हो चुका है। दादाश्री : व्यवस्थित हो चुका है, वह अब यहाँ पर 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा उतरे तो परिवर्तन हो जाता है। कृपा उतरनी मुश्किल है। वाणी, व्यवहार में... ज्ञानी की आज्ञा से सब सुधर सकता है। क्योंकि भव में दाखिल होने के लिए वह बाड़ के समान है। भव के अंदर दाख़िल होने नहीं देगी। प्रश्नकर्ता भव के अंदर मतलब क्या? ७० दादाश्री : भव में घुसने नहीं दे। भव में मतलब संसार में हमें घुसने नहीं देगी। बिना मालिकी की वाणी जगत् में हो नहीं सकती। ऐसी वाणी सारे (आवरण) तोड़ देती है, पर उसे ज्ञानी को खुश करना आना चाहिए, राजी करना आना चाहिए। वे सबकुछ (पाप) भस्मीभूत कर देते हैं। यदि एक घंटे में इतना सारा, भस्मीभूत हो जाता है, लाखों जन्म जितना, तो फिर और क्या नहीं कर सकता? कर्त्ताभाव नहीं है। यह बिना मालिकी की वाणी हो ही नहीं सकती और बिना मालिकी की वाणी में किसीको हाथ नहीं डालना चाहिए कि 'ऐसा नहीं हो सकता', ऐसे । वास्तव में इतना यह अपवाद नहीं है, पर यह वस्तुस्थिति है। फिर हिसाब निकालना हो तो वह भी व्यवस्थित, वह भी व्यवस्थित, वह भी व्यवस्थित, वह भी व्यवस्थित, निकालकर फिर निकलेगा। पर तब उसका लाभ नहीं मिलेगा, जितना चाहते हैं उतना । प्रश्नकर्ता: अगले भव में यह सब स्मृति में लाइएगा। दादाश्री : हाँ, आप निश्चित करो कि मुझे दादा भगवान जैसी ही वाणी चाहिए। अभी मेरी ऐसी वाणी पसंद नहीं है। इसलिए उस अनुसार होगा। आपके निश्चित करने पर आधारित है। टेन्डर भरते समय निश्चित करो, जैसे वाणी, आचार चाहिए हों वैसे, और टेन्डर में से सब आपका डिसीजन आएगा। प्रश्नकर्ता: कितनों की वाणी इतनी मीठी होती है। लोग उनकी वाणी पर मुग्ध हो जाते हैं। तो वह क्या कहलाता है? दादाश्री : वे चोखे व्यक्ति होते हैं और बहुत पुण्य किया होता है तब ऐसा होता है, और खुद के लिए पैसे नहीं लेते। औरों के लिए
SR No.009606
Book TitleVaani Vyvahaar Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size33 KB
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