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________________ त्रिमंत्र ३१ त्रिमंत्र दादाश्री : ऐसा है न, कि इस समय नहीं मगर पहले जो शिव स्वरूप हुए हों, पिछले जन्मों में शिव स्वरूप हुए हों, वे 'शिवोहम्' बोल सकते हैं। उनकी नकल उनके बाद उनके शिष्यों ने इन लोगों ने की। और उनकी नकल इन शिष्यों के शिष्यों ने और उनके शिष्यों ने की। इस तरह सब नकल करते हैं। ऐसा करने से थोड़े शिव हो जायेंगे? घर में प्रतिदिन बीवी के साथ झगडे होते हैं और वहाँ 'शिवोहम् शिवोहम्' करते हैं। अरे, शिव को क्यों बदनाम करते हैं? बीवी के साथ झगडा करता हो और 'शिवोहम्' बोलता हो तो शिव की बदनामी होगी कि नहीं होगी? प्रश्नकर्ता : जितना समय 'शिवोहम्' बोले उतना समय तो बीवी से नहीं लड़ता न? दादाश्री : नहीं, 'शिवोहम्' बोल ही नहीं सकते। फिर तो उसे आगे जाने के मार्गदर्शन की ज़रूरत ही नहीं रही। क्योंकि अंतिम स्टेशन की बात चली, इसलिए फिर अन्य स्टेशनों पर जाने की ज़रूरत ही नहीं रही न ! इसलिए ऐसा नहीं बोल सकते। जब तक खुद के पास अंतिम स्टेशन का लाइसेन्स नहीं आता, तब तक 'शिवोहम्' नहीं बोल सकते। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भी नहीं बोल सकते। उसका भान होना चाहिए। जो कुछ बोलते हों, उसका भान होना चाहिए। अभानावस्था (बेहोशी) में तो कईं लोग ऐसा बोलते हैं कि, 'अहम् ब्रह्मास्मि'। अरे, काहे का? ब्रह्म क्या और ब्रह्मास्मि क्या? तू क्या समझा है, जो बार-बार बोलता रहता है? उन लोगों ने ऐसा ही सिखाया था, अहम् ब्रह्मास्मि । पर उसका अनुभव होना चाहिए। आप शुद्धात्मा हैं मगर खुद को शुद्धात्मा का अनुभव होना चाहिए। यों ही नहीं बोला जाता। शिवोहम् बोल सकते हैं क्या? आपको क्या लगता है? अनुभव होने के सिवा नहीं बोल सकते। वह तो हमें समझना है कि आखिर में हमारा स्वरूप शिव का है। पर ऐसा बोल नहीं सकते। वर्ना बोलने पर फिर दूसरे बीच के सारे स्टेशन रह जायेंगे। प्रश्नकर्ता : 'शिवोहम्' बोलता है लेकिन वह अज्ञानता में ही बोलता है न? समझता नहीं है फिर भी बोलता है। दादाश्री : हाँ, अज्ञानता से बोलता है। पर मन में तो उसे ऐसा ही रहता है न कि 'हमारा शिवोहम्' यानी 'मैं ही शिव हूँ'। इसलिए अब कोई प्रगति करनी शेष नहीं रही। ऐसा भीतर में समझता है। और जो लोग 'सोहम् सोहम्' बोलते हैं वैसा बोल सकते हैं। सोहम् का हिन्दी क्या होगा? प्रश्नकर्ता : 'वह मैं हूँ।' दादाश्री : 'वह मैं हूँ' बोल सकते हैं पर शिवोहम् नहीं बोल सकते। वह मैं हूँ' अर्थात् जो आत्मा है या भगवान है वह मैं हूँ, ऐसा बोल सकते हैं । 'तू ही, तू ही' बोल सकें पर 'मैं ही, मैं ही' नहीं बोल सकते। 'तू ही, तू ही' बोल सकें, क्योंकि तब अज्ञानता में भी 'मैं' और 'तू' दो अलग ही हैं पहले से। और ऐसा बोलते हैं इसमें गलत भी क्या है? वे दोनों अलग ही हैं। प्रश्नकर्ता : शिवोहम् यानी क्या? दादाश्री : जिसे मुझे शिव होना है, उस लक्ष्य पर पहुँचना है ऐसा होता है वह कहता है कि मैं शिवोहम् हूँ! शिव यानी खुद ही कल्याण स्वरूप हो गया, वह खुद ही महादेवजी हो गया ! अंतर है शिव और शंकर में प्रश्नकर्ता : शिव और शंकर उसमें क्या अंतर है? शिव उसे कल्याण पुरुष कहा, तो शंकर वह देवलोक में है? दादाश्री : शंकर तो एक ही नहीं, कईं शंकर हैं। जब से समता में आये न, तब से 'सम कर' यानी शंकर कहलाये। अर्थात् कई शंकर हैं पर वे सारे उच्चगति में हैं। जो 'सम' करता है, वह शंकर।
SR No.009605
Book TitleTrimantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2008
Total Pages29
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size216 KB
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