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________________ त्रिमंत्र १४ त्रिमंत्र की जिसे किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं है और निज आत्मा के सुख के हेतु ही आचारों का पालन करते हैं। आयरियाणं अर्थात् जिसे आत्मा जानने के पश्चात् आचार्यपन (खुद आचारों का पालन करते हैं और दूसरों को पालन करवाते हैं) है, ऐसे आचार्य भगवान को नमस्कार करता हूँ। इसमें हर्ज है क्या? आपको इसमें आपत्ति लगती है क्या? चाहे फिर कोई भी हो, किसी भी जाति का हो पर जिसे आत्मज्ञान हुआ है, ऐसे आचार्य को नमस्कार करता हूँ। अब वर्तमान में ऐसे आचार्य इस जगत में सभी जगह पर नहीं हैं, किंतु कुछ जगह पर हैं। लेकिन ऐसे आचार्य यहाँ नहीं हैं। हमारी भूमि पर नहीं हैं पर दूसरी भूमि पर हैं। इसलिए यह नमस्कार वे जहाँ हैं वहाँ पहुँच जाते हैं और हमें तुरंत उसका फल मिलता है। प्रश्नकर्ता : इन आचार्यों में शक्ति नहीं थी? आचार्य पद कब प्राप्त होगा? दादाश्री : यह आचार्य पद जो है वह महावीर भगवान के पश्चात् हजार साल तक ठीक से चला। और उसके बाद जो आचार्य पद है वह लौकिक आचार्य पद है। बाद में अलौकिक आचार्य ही नहीं पिछले महापुरुषों के आगम हों कि वेदांत के सूत्र हों, उसकी ही मुहर जैसे हैं। इसीलिए उन्हें आचार्य कहा है।। दादाश्री : वे तो कहेंगे, मगर सही आचार्य तो आत्मज्ञान होने के बाद ही कहलाते हैं। आचार्य, प्रतापी सिंह समान तीर्थकर क्या काम आते हैं? दर्शन के काम आते हैं और सुनने के काम आते हैं। सुनना कब कि देशना दे रहे हों तब सुनने के काम आते हैं, वर्ना दर्शन के काम आते हैं। वह भी जिसे सिर्फ दर्शन की ही कमी रह गई हो, वह उनके दर्शन कर के मोक्ष में जाता है। उनके दर्शन से ही पूर्णाहुति हो जाती है। पर जो उस स्टेज तक पहुँचा हो उसके लिए। जिसने आचार्य के पास से सारे आचार जान लिए हैं, वह उस स्टेज पर आ गया हो न, उसका वहाँ तीर्थंकर भगवान के पास दर्शन से काम हो जाता है। अर्थात् अंतिम परिपक्वता आचार्य के पास होती है। आचार्य परिपक्व करते हैं। तीर्थंकर भी उनकी महत्ता का स्वीकार करते हैं। तीर्थंकर भगवान से पूछा जाये कि 'इन पाँचों में सबसे बड़ा कौन? आप हैं क्या?' तब तीर्थंकर भगवान कहेंगे कि 'आचार्य भगवान बड़े।' यह तो तीर्थंकर भगवान से अभिप्राय माँगे, इसलिए अभिप्राय तो उनका ही कहलाये न ! प्रश्नकर्ता : पर ऐसा क्यों कहेंगे? दादाश्री : क्योंकि तीर्थंकर भगवान के एक सौ आठ गुण और आचार्य महाराज में एक हजार और आठ गुण होते हैं! अर्थात् वे तो गुणों का धाम कहलायें। और वे तो सिंह समान होते हैं। उनकी दहाड़ से तो सब डोलने लगें। जैसे यह गीदड़ ने कुछ मांस खाया हो, पर यदि शेर को देख लिया तो देखने के साथ ही गीदड़ मांस की उलटी कर डाले! ऐसा ही आचार्य महाराज का प्रताप होता है। हाँ, किसी ने बहुत सारे पाप किए हों न, वह उनके सामने अपने पापों की उलटी हुए हैं। प्रश्नकर्ता : मैं अलौकिक आचार्य की बात करता हूँ। दादाश्री : तो अलौकिक हुए ही नहीं हैं। अलौकिक आचार्य तो भगवान कहलाये। प्रश्नकर्ता : तो कुंदकुंदाचार्य...? दादाश्री : कुंदकुंदाचार्य हो गये पर वे महावीर भगवान के पश्चात् छह सौ साल बाद हुए थे। कुंदकुंदाचार्य तो पूर्ण पुरुष थे। और यह मैं तो कहता हूँ कि आखिरी पंद्रह सौ साल में आचार्य ही नहीं हुए हैं। प्रश्नकर्ता : पर यह तो आचार्यों की जो कुछ कृतियाँ हैं, वे
SR No.009605
Book TitleTrimantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2008
Total Pages29
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size216 KB
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