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________________ प्रेम ४७ तो अलग ही है न! उसका रौब कैसा पड़ता है? नहीं?! कोई गालियाँ दे तो भी उसका रौब नहीं जाए। हाँ रौब कैसा पड़ता है? ! और उस रौबवाले को ? 'ऐसे-ऐसे' न किया हो न, तो ठंडा पड़ जाता है! 'ऐसे ऐसे' करना रह गया तो रिसेप्शन में, तो ठंडा पड़ जाता है! 'सभी को किया और मैं रह गया। देखो यह रौब और उस रौब में कितना फर्क ? ! प्रश्नकर्ता: इसलिए जिसमें आसक्त पहले होते हैं, वहाँ पर ही फिर अनासक्त पर आएगा। दादाश्री : हाँ, वह तो रास्ता ही है न! वह उसके स्टेपिंग ही हैं सारे। बाकी अंत में अनासक्त योग में आना है। अभेद प्रेम वहाँ बुद्धि का अंत भगवान कैसे हैं? अनासक्त! किसी जगह पर आसक्त नहीं । प्रश्नकर्ता और ज्ञानी भी अनासक्त ही हैं न? दादाश्री : हाँ। इसलिए ही हमारा निरंतर प्रेम होता है न वह सब जगह एक सा, समान प्रेम होता है। गालियाँ दें उस पर भी समान, फूल चढ़ाएँ उस पर भी समान और फूल न चढ़ाएँ उस पर भी समान । हमारे प्रेम में भेद नहीं पड़ता और अभेद प्रेम है वहाँ तो बुद्धि चली जाती है फिर । हमेशा प्रेम पहले, बुद्धि को तोड़ डालता है या फिर बुद्धि प्रेम को आसक्त बनाती है। इसलिए बुद्धि हो वहाँ प्रेम नहीं होता और प्रेम हो वहाँ बुद्धि नहीं होती। अभेद प्रेम उत्पन्न हो कि बुद्धि खत्म हुई यानी अहंकार खत्म हुआ। फिर कुछ रहा नहीं और ममता नहीं हो, तब ही प्रेमस्वरूप हो जाएगा। हम तो अखंड प्रेमवाले! हमें इस देह पर ममता नहीं है। इस वाणी पर ममता नहीं और मन पर भी ममता नहीं है। वीतरागता में से प्रेम का उद्भव इसलिए सच्चा प्रेम कहाँ से लाए? वह तो अहंकार और ममता गए बाद में ही प्रेम होता है। अहंकार और ममता गए बिना सच्चा प्रेम होता प्रेम ४८ ही नहीं। सच्चा प्रेम यानी वीतरागता में से उत्पन्न होनेवाली वह वस्तु है । द्वंद्वातीत होने के बाद वीतराग होता है। द्वैत और अद्वैत तो द्वंद्व है। अद्वैतवाले को द्वैत के विकल्प आया करते हैं। 'वह द्वैत, वह द्वैत, वह द्वैत!' तब द्वैत आ पड़ता है उल्टे । पर वह अद्वैतपद अच्छा है। पर अद्वैत से तो एक लाख मील जाएगा तब वीतरागता का पद आएगा और वीतरागता का पद आने के बाद अंदर प्रेम उत्पन्न होगा और वह प्रेम उत्पन्न होए, वह परमात्म प्रेम है। दो धौल मारो तब भी वह प्रेम घटे नहीं और घटे तो हम समझे कि यह प्रेम नहीं था । सामनेवाले का धक्का हमें लग जाए उसका हर्ज नहीं है। पर अपना धक्का सामनेवाले को नहीं लगे वह हमें देखना है। तो प्रेम संपादन होता है। बाकी, प्रेम संपादन करना हो तो वैसे ही नहीं होता। धीरे-धीरे सभी के साथ शुद्ध प्रेम स्वरूप होना है। प्रश्नकर्ता : शुद्ध प्रेम स्वरूप यानी किस तरह रहना चाहिए? दादाश्री : कोई व्यक्ति अभी गालियाँ देता हुआ गया और फिर आपके पास आया तब भी आपका प्रेम घट नहीं जाता, उसका नाम शुद्ध प्रेम। ऐसा प्रेम का पाठ सीखना है, बस दूसरा कुछ सीखना नहीं है। मैं जो दिखाऊँ वैसा प्रेम होना चाहिए। यह जिन्दगी पूरी होने तक में आ जाएगा न सब? वह प्रेम सीखो अब ! रीत, प्रेमस्वरूप होने की असल में जगत् जैसा है वैसा वह जाने, फिर अनुभव करे तो उसे प्रेमस्वरूप ही होगा। जगत् 'जैसा है वैसा' क्या है? कि कोई जीव किंचित् मात्र दोषी नहीं, निर्दोष ही है जीव मात्र कोई दोषी दिखता है वह भ्रांति से ही दिखता है। अच्छे दिखते हैं, वह भी भ्रांति और दोषी दिखते हैं, वह भी भ्रांति । दोनों अटेचमेन्ट डिटेचमेन्ट हैं। यानी कोई दोषी असल में है ही नहीं और दोषी दिखता है इसलिए प्रेम आता ही नहीं। इसलिए जगत् के साथ जब
SR No.009600
Book TitlePrem
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages39
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size232 KB
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