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________________ २२ नहीं आता। मैं इस शरीर से अलग रहता हूँ, पड़ोसी की तरह रहता हूँ। इस शरीर से अलग, पड़ोसी-'फर्स्ट नेबर'। प्रेम समाया नोर्मेलिटी में माँ वह माता का स्वरूप है। हम माताजी मानते हैं न, वह माँ का स्वरूप है। माँ का प्रेम सच्चा है। पर वह प्राकृत प्रेम है और दूसरा, भगवान में ऐसा प्रेम होता है। यहाँ जिसे भगवान कहते हैं, वहाँ हमें पता लगाना चाहिए। वहाँ उल्टा करो, उल्टा बोलो तब भी प्रेम करते हैं और बहुत फूल चढाएँ तब भी वैसा ही प्रेम करते हैं। वह घटता नहीं, बढ़ता नहीं, ऐसा प्रेम होता है। इसलिए उसे प्रेम कहा जाता है, और वह प्रेम स्वरूप, वही परमात्म स्वरूप है। बाकी, जगत् ने प्रेम देखा ही नहीं। भगवान महावीर के जाने के बाद प्रेम शब्द देखा ही नहीं। सब आसक्ति है। इस संसार में प्रेम शब्द का उपयोग होता है वह तो आसक्ति के लिए उपयोग करते हैं। प्रेम यदि उसके लेवल में हो, नोर्मेलिटी में हो तब तक वह प्रेम कहलाता है। और नोर्मेलिटी छोड़े तब वह प्रेम फिर आसक्ति कहलाता है। मदर का प्रेम उसे प्रेम कहते ज़रूर है पर वह नोर्मेलिटी छूट जाती है, इसीलिए आसक्ति कहलाता है। बाकी, प्रेम वह परमात्म स्वरूप है। नॉर्मल प्रेम, वह परमात्म स्वरूप है। पूरे होते रहते हैं। बैर बंधे हुए होते हैं। यदि प्रेम का जगत् होता तब तो सारे दिन ही उसके पास से उठना अच्छा नहीं लगता। लाख रुपये की कमाई हो तब भी कहेगा, रहने दो न! यह तो कमाई न हो तब भी बाहर चला जाता है मुआ! क्यों बाहर चला जाता है? घर में पसंद नहीं है, चैन पड़ता नहीं! पति? नहीं, कम्पेनियन ये तो सब रोंग बिलीफ़ हैं। 'मैं चंदूभाई हूँ', वह रोंग बिलीफ़ है। फिर घर पर जाएँ, तब हम कहें, 'यह कौन है?' तब वे कहते हैं. 'नहीं पहचाने? इस स्त्री का मैं पति हूँ।' ओहो बड़े पति आए! मानो पति का पति ही ना हो ऐसी बात करता है न? पति का पति कोई नहीं होता? तो फिर ऊपरवाले पति के हम पत्नी हए और अपनी पत्नी ये हई। ये क्या धांधली में पड़ें?! पति ही किसलिए बनें? हमारा कम्पेनियन है, कहें। फिर क्या हर्ज है? प्रश्नकर्ता : दादा यह बहुत मोर्डन भाषा का उपयोग किया। गुरु-शिष्य का प्रेम शुद्ध प्रेम से सभी दरवाजे खुलते हैं। गुरु के साथ के प्रेम से क्या नहीं मिलता? सच्चे गुरु और शिष्य के बीच तो प्रेम का आंकड़ा इतना सुंदर होता है कि गुरु जो बोले वह उसे बहुत पसंद आता है। ऐसा तो प्रेम का आंकड़ा होता है। पर अभी तो इन दोनों में भी झगड़े चला करते हैं। एक जगह पर तो शिष्य और गुरु महाराज, दोनों मारपीट कर रहे थे। तो मुझे एक जने ने कहा कि, 'चलिए ऊपर।' मैंने कहा, 'नहीं देखना चाहिए, अरे मुए, बुरा दिखता है। वह तो सब चलता रहता है। जगत् ऐसा ही है। सास-बहू नहीं लड़ते? वैसा ही यह भी! बैर बंधे हुए हैं, वे बैर दादाश्री: तब क्या?! टसल कम हो जाए न! हाँ, एक रूम में कम्पेनियन और वे, दोनों रहते हो, तो वह एक व्यक्ति चाय बनाए और दूसरा पीए, तब दूसरा उसके लिए उसका दूसरा काम कर दे। ऐसे करके कम्पेनियन चलता रहे। प्रश्नकर्ता : कम्पेनियन में आसक्ति होती है या नहीं? दादाश्री : उसमें भी आसक्ति होती है। पर वह आसक्ति इसके जैसी नहीं। यह तो शब्द ही ऐसे हैं आसक्तिवाले! ये शब्द गाढ़ आसक्तिवाले हैं। धणीपन और धणियाणी' इन शब्दों में ही इतनी गाढ़ आसक्ति है कि कम्पेनियन कहे तो आसक्ति कम हो जाती है। नहीं है मेरी... एक व्यक्ति थे, उनकी वाइफ बीस वर्ष पहले मर गई थी। तो दूसरे
SR No.009600
Book TitlePrem
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages39
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size232 KB
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