SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण प्रश्नकर्ता : हमसे किसी को दु:ख हो यह बात हमें पसंद नहीं आती। बस इतना ही रहता है। फिर आगे नहीं बढ़ता है। प्रतिक्रमण जैसा नहीं होता। दादाश्री : वह तो हम भीतर जैसा बोलें ऐसा मशीन लगा रखा है, वह चलता है! जैसी भजना वैसा हो जाये। आप कहेंगे कि. 'मझे ऐसा नहीं होता है' तो वैसा होगा। और कहेंगे, 'इतने सारे प्रतिक्रमण होते हैं कि मैं थक जाता हैं।' तो भीतर वह थक जायेगा। अतः प्रतिक्रमण करनेवाला करता है। तू अपने आप चलाता रहे आगे, पाँच सौ-पाँच सौ प्रतिक्रमण हो रहे होते हैं। तू चलाता रहे न कि 'मुझ से प्रतिक्रमण होते हैं।' हो सके तब तक 'शूट ऑन साइट' रखना यानी दोष होते ही प्रतिक्रमण करना। और न हो सके तो शाम को साथ में करना। किंतु ऐसा करने से दो-चार रह जायेंगे। उन्हें कहाँ रखेंगे?! और कौन रखेगा उन्हें? वह तो 'शूट ऑन साइट' का अपना धंधा है! है। जिस लाइफ में मैं जो व्यवस्थित देता हूँ उस व्यवस्थित में बदलाव हो सके ऐसा नहीं है। अतः ही मैं आपको खुला छोड़ देता हूँ। अर्थात् मैं देखकर कहता हूँ. और इसलिए मुझे डाँटना भी नहीं पडता, कि घरवाली के साथ क्यों घूमते थे? और क्यों ऐसा-वैसा?! अत: मझे कभी डाँटना नहीं पड़ता। दूसरी लाइफ के लिए नहीं, पर यह एक लाइफ के लिए। यु आर नोट रिस्पोन्सिबल एट ऑल! (आप बिलकुल ही जिम्मेदार नहीं) इतना सब कुछ कहा है फिर। प्रश्नकर्ता : ब्याज खा सकते हैं कि नहीं खा सकते? दादाश्री : ब्याज चन्दुलाल को खाना हो तो खायें, पर उसे कहना कि बाद में प्रतिक्रमण करना। इस प्रतिक्रमण से सामनेवाले पर असर पडे और वह पैसे लौटा दे। सामनेवाले को ऐसी सद्बुद्धि उत्पन्न होगी। प्रतिक्रमण से यों सुलटा असर होता है। तब हमारे लोग घर जाकर उधारीवाले को गालियाँ देते हैं तो उसका उलटा असर होगा कि नहीं होगा? उलटा लोग अधिक से अधिक उलझाते हैं। सारा असरग्रस्त संसार है। प्रश्नकर्ता : हम किसी लेनदार का प्रतिक्रमण करें तब भी वह माँगता तो रहेगा न? दादाश्री : माँगने-न माँगने का सवाल नहीं है, राग-द्वेष नहीं होने चाहिए। लेना तो रहेगा भी सही! जब से दोष दिखाई पड़ा तब से ही समझ लेना कि अब मोक्ष में जाने का टिकट मिल गया। खुद का दोष किसी को नज़र नहीं आता। बड़ेबड़े साधु-आचार्यों को भी अपना दोष नज़र नहीं आता। मूलत: बड़ी से बड़ी कमी यह है। और यह हमारा विज्ञान ही ऐसा है कि, वह आपको निष्पक्षपात रीति से जजमेन्ट(निर्णय) देता है। हमें अपने सारे दोष दिखा दें। भले ही दोष होने के बाद दिखाई दें, किंतु दोष खुला कर देता है न! अभी जो हुआ सो हुआ! वह बात अलग है, गाड़ी की स्पीड (गति) तेज़ हो तो कट जायेगा लेकिन तब मालूम तो हुआ न! ७. हो शुद्ध व्यापार प्रश्नकर्ता : आप ऐसे चन्दुभाई को खुला छोड़ दें तो वह तो कुछ भी करें? दादाश्री : नहीं, वह इसीलिए ही मैंने व्यवस्थित कहा था कि एक बाल जितना भी बदलाव करने का अधिकार एक जिन्दगी के लिए नहीं एक आदमी कहता है, 'मुझे धर्म नहीं चाहिए। मैं भौतिक सुख चाहता हूँ।' उसे मैं कहूँगा, 'प्रामाणिक रहना, नीति का पालन करना।' मंदिर जाने को नहीं कहूँगा। दूसरे को तू देता है वह देवधर्म है। किंतु दूसरे का, अनाधिकार लेता नहीं है वह मानवधर्म है। अर्थात् प्रामाणिकता वह सबसे बड़ा धर्म है। 'डिसऑनेस्टी इझ धी बेस्ट फलीशनेस' (अप्रामाणिकता सर्वोत्तम मूर्खता है)!!! ऑनस्ट (प्रामाणिक) हो नहीं सकता, तो क्या मैं जाकर दरिया में छलाँग लगाऊँ? मेरे 'दादाजी' सिखाते हैं कि तू डिसऑनेस्ट
SR No.009599
Book TitlePratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2007
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size39 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy