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________________ पैसों का व्यवहार आप बड़े धंधे के साथ जुड़े हुए हैं। तो दोनों कैसे संभव है? यह समझाइये | ३७ दादाश्री : अच्छा प्रश्न है कि 'हँसना और आटा फाँकना, ये दोनों कैसे हो सके? एक ओर तो धंधा करते हो और इस ओर भगवान की राह पर हो, यह दोनों कैसे संभव है? पर हो सकें, ऐसा है। बाहर का अलग चले और अंदर का अलग चले, ऐसा है। दोनों अलग-अलग ही है। यह 'चन्दुभाई' है न, वह चन्दुभाई जुदा है और आत्मा अलग है, अंदर दोनों अलग हो सके ऐसा है। दोनों के गुणधर्म भी अलग हैं। जैसे यहाँ पर सोना और ताँबा दोनों मिल गयें हो और उन्हें फिर से अलग करना चाहें तो होंगे कि नहीं होंगे? प्रश्नकर्ता: होंगे। दादाश्री : उसी तरह ज्ञानी पुरुष इसे अलग कर सकें। ज्ञानी पुरुष चाहे सो कर सके, आपको यदि अलग करवाना हो तो आना यहाँ, लाभ लेना चाहते हो तो आना। धंधा चलता रहे मगर धंधे में एक क्षण के लिए भी हमारा उपयोग नहीं होता। केवल नाम होगा उस ओर पर हमारा उपयोग क्षणभर के लिए भी नहीं होता। महीने में एकाध दिन दो घंटे के लिए मुझे जाना पड़े और तब जाऊँ भी, पर हमारा उपयोग नहीं होता। उपयोग नहीं होना माने क्या, यह समझे आप? ये लोग दान लेने जाते हैं न? अब किसी से दान लेने गयें हो, और हम कहें कि इस स्कूल के लिए दान कीजिए, तो वह देने के लिए इच्छा नहीं रखता हो तो उसका मन अलग रखे हमारे से। रखे कि नहीं रखे ? प्रश्नकर्ता रखे। दादाश्री : उसी तरह इसमें (भीतर) सब अलग रहता है। उसमें अलग रखने के रास्ते होते हैं सब । आत्मा भी अलग है और यह 'चन्दुभाई' भी अलग है। पैसों का व्यवहार सारी जिंदगी मैंने धंधे में चित्त रखा ही नहीं है। धंधा किया जरुर है। मेहनत की होगी, काम किया होगा, पर चित्त नहीं रखा। प्रश्नकर्ता : धंधे की चिंता होती है, बहुत बाधाएँ आती है। दादाश्री : चिंता होने लगे तो समझना कि काम और बिगड़नेवाला है। चिंता नहीं हो तो समझें कि कार्य नहीं बिगड़ेगा। चिंता कार्य की अवरोधक है। चिंता से तो धंधे की मौत आती है। जिस में चढ़ा उतरी हो उसी का नाम धंधा । पूरण गलन है वह पूरण हुआ उसका गलन हुए बगैर रहता ही नहीं। पूरण गलन में हमारी कोई मिल्कियत नहीं है और जो हमारी मिल्कियत है उसमें कोई पूरण-गलन नहीं होता ! ऐसा शुद्ध व्यवहार है ! यह आपके घर में आपके बीवी-बच्चे सभी पार्टनर्स है न? प्रश्नकर्ता: सुख-दु:ख भुगतने में जरूर। ३८ दादाश्री : आप अपने बीवी-बच्चों के अभिभावक (संरक्षक) कहलायें। अकेला अभिभावक ही क्यों चिंता करें? और घरवाले तो उलटा कहें कि आप हमारी चिंता मत करना। प्रश्नकर्ता: चिंता का स्वरूप क्या है? जन्में तब तो थी नहीं फिर ये आई कहाँ से? दादाश्री : ज्यों-ज्यों बुद्धि बढ़ेगी त्यों-त्यों कुढन बढेगी। जब जन्में तब बुद्धि थी? धंधे के लिए विचार की आवश्यकता है पर उस से आगे गये तो बिगड़ जायेगा । धंधे के लिए दस-पंद्रह मिनिट सोचना चाहिए, फिर उससे आगे बढ़े और विचारों के बट (भँवर) चढ़ने लगे तो वह नोर्मालिटी से बाहर गया कहलाये, तब उसे छोड देना । धंधे के विचार तो आयेंगे ही पर उस विचार में तन्मयकार होकर विचार चलते रहें तो उसका ध्यान उत्पन्न होगा और इसलिए चिंता होगी। और यह चिंता भारी नुकसान करे। प्रश्नकर्ता: मन में तय करें कि आर्तध्यान, रौद्रध्यान नहीं करना है पर दुकान घाटे में चले इसलिए करना पड़े तो क्या करे ?
SR No.009597
Book TitlePaiso Ka Vyvahaar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2007
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size302 KB
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