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________________ पाप-पुण्य बीज बोना। सुख पुसाता हो तो पुण्य का और दुःख पुसाता हो तो पाप का बीज बोना, परन्तु दोनों रिलेटिव धर्म ही हैं, रियल नहीं हैं। रियल धर्म में, आत्मधर्म में तो पुण्य और पाप दोनों से मुक्ति चाहिए। रिलेटिव धर्मों से भौतिक सुख मिलते हैं और मोक्ष की ओर प्रयाण होता है, जब कि रियल धर्म से मोक्ष मिलता है। यहाँ 'हमारे' पास रियल धर्म है। उससे सीधे ही मोक्ष मिल जाता है। यहीं पर मोक्षसुख बरतता है। यहीं पर आधि, व्याधि, उपाधि (बाह्य दुःख, बाहर से आ पड़नेवाले दु:ख) से मुक्ति मिल जाती है और निरंतर समाधि रहा करती है। निराकुलता उत्पन्न होती है। यहाँ तो आत्मा और परमात्मा की बातें होती पाप-पुण्य तब कहें, उसमें संयोग सारे अच्छे मिल जाएँ तो मदद ही करते रहते हैं। बंगला बनवाना हो तो बंगला बनता है, मोटर मिलती है! और पाप खराब संयोग लाकर बंगले की नीलामी करवाता है। इसलिए अपने ही कर्म का फल है। उसमें भगवान की कोई दख़ल है नहीं! यू आर होल एन्ड सोल रिस्पोन्सिबल फॉर योर लाइफ! एक लाइफ नहीं, कितनी ही लाइफ के लिए भगवान की दखल है नहीं इसमें। बिना काम के लोग भगवान के पीछे पड़े हैं। प्रकार, पुण्य-पाप के हैं। जगत् में आत्मा और परमाणु दो ही हैं। किसीको शांति दी हो, सुख दिया हो तो पुण्य के परमाणु इकट्ठे होते हैं और किसीको दुःख दिया हो तो पाप के परमाणु इकट्ठे होते हैं। फिर वे ही काटते हैं। इच्छा के अनुसार होता है, वह पुण्य और इच्छा के विरुद्ध होता है, वह पाप। पाप दो प्रकार के हैं। एक पापानुबंधी पाप, दूसरा पुण्यानुबंधी पाप और पुण्य दो प्रकार के हैं, एक पापानुबंधी पुण्य, दूसरा पुण्यानुबंधी पुण्य। पापानुबंधी पाप पापानुबंधी पाप अर्थात् अभी पाप भुगतता है और वापिस पाप का नया अनुबंध बाँधता है। किसीको दुःख देता है और फिर वापिस खुश होता है। परमाणु फलीभूत स्वयं सुख-दुःख में प्रश्नकर्ता : पाप और पुण्य के विभाग किसने बनाए? दादाश्री : किसीने नहीं बनाए। प्रश्नकर्ता : यह पाप है, यह पुण्य है वह सब बुद्धि कहती है, आत्मा को तो पाप-पुण्य कुछ है ही नहीं न? दादाश्री : नहीं, आत्मा को नहीं है। सामनेवाले को दुःख हो वैसी वाणी हम बोलें न, तब वह वाणी ही खद परमाणओं को खींचती है। उन परमाणुओं को दु:ख का रंग लग जाता है, फिर वे परमाणु जब फल देने लगें, तब दुःख ही देते हैं वे। दूसरी बीच में किसीकी मिलावट है ही नहीं। उसमें जिम्मेदारी किसकी? प्रश्नकर्ता : एक व्यक्ति को पैसा और एक व्यक्ति को गरीबी, वह किस तरह से आता है? मनुष्य में ही सबने जन्म लिया है तो भी? दादाश्री : वह ऐसा है, अपना यह जो जन्म होता है न, वह इफेक्ट होता है। इफेक्ट अर्थात् पिछले जन्म में जो कॉज़ेज़ डाले थे, उनका यह फल है। इसलिए जितना पुण्य होता है, उस पुण्य में क्या क्या होता है? पुण्यानुबंधी पाप फिर पुण्यानुबंधी पाप अर्थात् पूर्व के पाप के कारण अभी दःख (पाप) भुगतता है पर नीति से और अच्छे संस्कारों के कारण अनुबंध पुण्य के बाँधता है। प्रश्नकर्ता : यानी दु:ख उपकारी है न? दादाश्री : नहीं, जिसे 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भान हो गया है उसके लिए दु:ख उपकारी है, नहीं तो दु:ख में से दुःख ही जन्म लेता है। दुःख
SR No.009596
Book TitlePap Punya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size268 KB
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