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________________ संपादकीय हमारे भारत में तो पुण्य-पाप की समझ बच्चा डगमग डग भरने लगे तभी से ही दी जाती है। छोटा बच्चा जीवजंतु मार रहा हो, तो माता फटाक से उसके हाथ पर मार देती है और क्रोध करके कहती है, 'नहीं मारते, पाप लगता है!' बचपन से ही बालक को सुनने को मिलता है, 'गलत करेगा तो पाप लगेगा, ऐसा नहीं करते।' कई बार मनुष्य को दुःख पड़ता है, तब रो उठता है, कहेगा मेरे कौन-से भव के पापों की सजा भुगत रहा हूँ। अच्छा हो जाए तो कहेंगे 'पुण्यशाली है'। इस प्रकार से पाप-पुण्य शब्द का अपने व्यवहार में अक्सर प्रयोग होता रहता है। भारत में तो क्या, विश्व के तमाम लोग पुण्य-पाप को स्वीकार करते हैं और उनमें से किस प्रकार छूटा जाए, उसके उपाय भी बताए गए हैं। पर पुण्य-पाप की यथार्थ परिभाषा क्या है? यथार्थ समझ क्या है? पूर्वभव-इस भव और अगले भव के साथ पाप-पुण्य का क्या संबंध है? जीवन व्यवहार में पाप-पुण्य के फल किस प्रकार भुगतने पड़ते हैं? पुण्य और पाप के प्रकार कैसे होते हैं? वहाँ से लेकर ठेठ मोक्ष मार्ग में पापपुण्य की क्या उपयोगिता है? मोक्ष प्राप्ति के लिए पाप-पुण्य दोनों ज़रूरी हैं, या दोनों से मुक्त होना पड़ेगा? पुण्य-पाप की इतनी सारी बातें सुनने को मिलती हैं, कि इनमें सच क्या है? वह समाधान कहाँ से मिलेगा? पाप-पुण्य की यथार्थ समझ के अभाव में कई उलझनें खड़ी हो जाती हैं। पुण्य और पाप की परिभाषा कहीं भी क्लियरकट और शॉर्टकट (स्पष्ट और संक्षेप में) में देखने को नहीं मिलती। इसलिए पुण्य-पाप के लिए तरह-तरह की परिभाषाएँ सामान्य मनुष्य को उलझाती हैं, और अंत में पुण्य बांधना और पाप करने से रुकना तो होता ही नहीं। परम पूज्य दादाश्री ने वह परिभाषा बहत ही सरल. सीधी और संदर ढंग से दे दी है कि 'दूसरों को सुख देने से पुण्य बँधता है और दूसरों को दुःख देने से पाप बँधता है' अब इतनी ही जागृति सारे दिन रखें तो उसमें सारा ही धर्म आ गया और अधर्म छूट गया! और भूलकर भी किसीको दु:ख दे दिया जाए तो उसका तुरंत ही प्रतिक्रमण कर लो। प्रतिक्रमण मतलब जिसे वाणी से, वर्तन से या मन से भी दुःख पहुँचा हो, तो तुरन्त ही उसके भीतर बिराजमान आत्मा, शुद्धात्मा से माफ़ी माँग लें, हदयपूर्वक पछतावा होना चाहिए और फिर से ऐसा नहीं करूँगा, ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाना चाहिए। इतना ही, बस। और वह भी मन में, पर दिल से कर लो, तो भी उसका एक्जेक्ट (यथार्थ) फल मिलता है। परम पूज्य दादाश्री कहते हैं, 'जीवन पुण्य और पाप के उदय के अनुसार चलता है, दूसरा कोई चलानेवाला नहीं है। फिर कहाँ किसीको दोष या शाबाशी देना रहा? इसलिए पाप का उदय हो, तब अधिक प्रयत्न किए बिना शांत बैठा रह और आत्मा का कर। पुण्य यदि फल देने के लिए सम्मुख हुआ हो तब फिर सैंकड़ों प्रयत्न किसलिए? और पुण्य जब फल देने के लिए सम्मुख नहीं हुआ हो तब फिर सैंकड़ों प्रयत्न किस लिए? इसलिए तू धर्म कर। पुण्य-पाप संबंधी सामान्य प्रश्नों से लेकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रश्नों के भी उतने ही सरल, संक्षिप्त और पुर-असर समाधानकारी उत्तर यहाँ मिलते हैं, परम पूज्य दादाश्री की अपनी देशी शैली में! मोक्ष प्राप्ति के लिए क्या पुण्य की ज़रूरत है? यदि ज़रूरत हो तो कौन-सा और कैसा पुण्य चाहिए? पुण्य तो चाहिए ही परन्तु पुण्यानुबंधी पुण्य चाहिए। इतना ही नहीं परन्तु मोक्ष के आशय के साथ ही पुण्य बंधा होना चाहिए, जिससे कि उस पुण्य के फल स्वरूप मोक्ष प्राप्ति के सभी साधन और अंतिम साधन आत्मज्ञानी का मिले! उपरांत पुण्यानुबंधी पुण्य मोक्ष के हेतु के लिए बंधा हुआ हो तो उसके साथ :- १) क्रोध-मान-माया-लोभ कम हुए होने चाहिए, कषाय मंद हो जाने चाहिए, २) खुद के पास हो वह दूसरों के लिए लुटा दे और ३) प्रत्येक क्रिया में बदले की इच्छा नहीं रखे तो ही वह पुण्य मोक्ष के लिए काम आएगा, नहीं तो दूसरे पुण्य तो भौतिक सुख देकर बर्फ की तरह पिघल जाएँगे! ऐसी पाप-पुण्य की यथार्थ समझ तो प्रकट ज्ञानी पुरुष के पास से ही सत्संग प्रश्नोत्तरी द्वारा प्राप्त हुई है, जिसकी प्रस्तुति इस संकलन में हुई - डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद
SR No.009596
Book TitlePap Punya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size268 KB
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