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________________ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! १३५ हैं न, वे सब धर्म कहलाते हैं। वे रिलेटिव धर्म हैं। रिलेटिव यानी नाशवंत धर्म, और यह तो 'रियल', तुरन्त मोक्षफल देनेवाला। तुरन्त ही मोक्ष का स्वाद चखा देता है। ऐसा मोक्षमार्ग चखा है, स्वाद में आ गया है, अनुभव में आ गया है। जगत् पूरा निर्दोष है' ऐसा आपको समझ में आया है, जब कि भगवान महावीर को वह अनुभव में था। किसी समय आपको समझ नहीं आए और किसी समय झंझट हो जाए, फिर भी तुरन्त वापिस ज्ञान हाज़िर हो जाता है कि उसका क्या दोष? 'व्यवस्थित' है वह समझ में आता है। निमित्त है, समझ में आता है। सब समझ में आ जाता है। भगवान को अनुभव में था। हमें यह समझ में है। समझ हमारे जैसी रहे न ! एक्जेक्ट हाज़िर, शूट ऑन साइट समझ रहती है इसलिए हमारा यह 'केवलदर्शन' कहलाता है। आपका 'केवलदर्शन' अभी हो रहा है। 'केवलज्ञान' हो सके ऐसा नहीं है तो हम उसे किसलिए बुलाएँ? जो हो सके ऐसा नहीं हो उसे कहें 'पधारो-पधारो' तो क्या होगा? 'केवलदर्शन' कोई छोटा पद है? वर्ल्ड का अद्भुत पद है!!! इस दुषमकाल में 'केवलदर्शन' तो गज़ब का पद है। सुषमकाल में तीर्थंकरों के समय के पद से भी यह पद ऊँचा कहलाता है। क्योंकि अभी तो तीन प्रतिशत पर पास किए थे, महावीर भगवान के समय में तैंतीस प्रतिशत पर पास करते १३६ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! ('माँ किसीके दोष नहीं निकालती है, दादा को भी किसीके दोष नहीं दिखते हैं।') मुझे अभी कोई गालियाँ दे, फिर कहेगा, 'साहब मुझे माफ़ करो।' अरे भाई! हमें माफ़ करना नहीं होता है। माफ़ी तो हमारे सहज गण में ही होती है। सहज स्वभाव ही हमारा हो गया है कि माफ़ी ही बक्शते हैं। तू चाहे जो करे, फिर भी माफ़ी ही बक्शते हैं। ज्ञानी का वह स्वभाविक गुण बन जाता है। और वह आत्मा का गुण नहीं है, न ही देह का गुण है, वे व्यतिरेक गुण हैं सारे। इन गुणों पर से हम नाप सकते हैं कि आत्मा उतने तक पहुँचा। फिर भी ये आत्मा के गुण नहीं है। आत्मा के खुद के गुण तो वहाँ ठेठ साथ में जाते हैं, वे सब गुण आत्मा के। और व्यवहार में यह हम कहते हैं, वे लक्षण हैं उसके। यदि किसीको धौल मारें और वह अपने सामने हँसे, तब हम जान जाते हैं कि इन्हें सहज क्षमा है। तब अपने को समझ में आता है कि बात ठीक है। आपकी निर्बलता हम जानते हैं। और निर्बलता होती ही है। इसीलिए हमारी सहज क्षमा होती है। क्षमा देनी पड़ती नहीं है, मिल जाती है, सहज भाव से। सहज क्षमा गण तो अंतिम दशा का गण कहलाता है। हमें सहज क्षमा होती है। इतना ही नहीं पर आपके लिए हमें एक समान प्रेम रहता है। जो बढ़े-घटे वह प्रेम नहीं होता है, वह आसक्ति है। हमारा प्रेम बढ़ताघटता नहीं है, वही शुद्ध प्रेम, परमात्म प्रेम है। तब प्रकट हो, मुक्त हास्य प्रश्नकर्ता : एक अक्षर भी आपका पहुँचे तो निर्दोषता आ जाए। दादाश्री : और हमारा अक्षर भी पहुँचते देर नहीं लगती। यह ज्ञान जो दिया हुआ है न, इसलिए एक अक्षर भी पहुँचने में देर नहीं लगती। जगत् पूरा निर्दोष दिखेगा, तब मुक्त हास्य उत्पन्न होगा। भार बिना का मुक्त हास्य उत्पन्न होता ही नहीं, ऐसा नियम है। एक भी मनुष्य दोषित थे। 'जगत् पूरा निर्दोष है' ऐसा समझ में आ गया ! नहीं देखते दादा दोष किसीके आपके दोष भी हमें दिखते हैं, पर हमारी दृष्टि शुद्धात्मा की तरफ होती है, उदयकर्म की तरफ दृष्टि नहीं होती। हमें सबके दोषों का पता चल जाता है, पर उसका हम पर असर नहीं होता है, इसलिए तो कवि ने लिखा है कि, 'मा कदी खोड़ काढे नहीं, दादाने य दोष कोईना देखाय नहीं।'
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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