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________________ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! ३९ पर परमात्मा की सत्ता कब प्राप्त होती है? भूल मिटे, तब ! वह भूल मिटती नहीं है और सत्ता प्राप्त होती नहीं है और लोगों के ससुर और सास बनकर खुश होते हैं। भूल मिटे तो सत्ता प्राप्त होती है, परमात्मा की सत्ता प्राप्त होती है। और यह ज्ञान प्राप्त होने के बाद 'खुद परमात्मा है' ऐसा लक्ष्य बैठा है, इसलिए अब धीरे-धीरे वह श्रेणी चढ़ता जाता है और वो सत्ता प्राप्त होती रहती है। बाक़ी भूल दिखलाए वह सच्चा। कितनी सारी भूलें? एक भूल हमारी जो मिटाए, हमारी सबसे बड़ी भूल मिटाए, वह भगवान कहलाता है। यह तो पहले का अभ्यास होता है कि मैं सबमें भगवान देखता हूँ, पर झगड़ते समय तो भगवान सब भूल जाता है और झगड़ा कर बैठता है कि दूध क्यों ढोला! घर का बच्चा खुद दूध ढोलता है क्या? यह तो आदि-अनादि से चली आई है, बाप को बेटे को डाँटना चाहिए ऐसी रीति है। यह तो कोई मानवता कहलाती है? मानवता तो कैसी सुगंध देती है? पच्चीस-पच्चीस मील के एरिया में सुगंध आती रहती है। खुद की सारी भूलें दिखें तो जानना कि सुधार होगा। एक भूल लोगों को अपनी दिखती नहीं है। निजदोष दर्शन से... निर्दोष ! उसके बाद वाणी निकलेगी और वह वाणी फिर निष्पक्षपाती होनी चाहिए। मुसलमान बैठा हो, उसे भी सुनने का मन हो। जैन बैठा हो, उसे भी सुनने का मन हो। सभी स्टेन्डर्ड को सुनने का मन हो, वह निष्पक्षपाती वाणी कहलाती है। खुद के दोष देखने में निष्पक्षपाती ऐसा कौन होता है? वे तो कृपालुदेव हों और उनके दो-तीन फॉलोअर्स (अनुयायी) हों न, वे होते हैं। बाक़ी खुद के दोष देखने में पक्षपात का सवाल ही कहाँ है? खुद के दोष देखने का पता ही नहीं चलता। ज्ञानी की तत्त्वदृष्टि हमें इस जगत् में कोई दोषित दिखता ही नहीं है। जेबकतरा हो या चारित्रहीन हो, उन्हें भी हम निर्दोष ही देखते हैं। हम 'सत् वस्तु' को ही देखते हैं। वह तात्विक दृष्टि है। पैकिंग को हम देखते नहीं हैं। वेरायटीज़ ऑफ पैकिंग हैं, उनमें हम तत्त्वदृष्टि से देखते हैं। हमने' संपूर्ण निर्दोष दृष्टि की और सारे जगत् को निर्दोष देखा। इसलिए ही 'ज्ञानी पुरुष' आपकी "भूल' मिटा सकते हैं! औरों की बिसात नहीं। तर गया वही तारे ये सब भूलें तो हैं न? उसकी खोज भी नहीं की है न? प्रश्नकर्ता : हमारी कोई भूल होती है, इतना समझ में आता है, पर उसमें से निकल नहीं पाते। और निकलने की कोशिश करते हैं वैसेवैसे गहरे, और गहरे ही उतरते जाते हैं। दादाश्री : कोशिश ही मत करना। वह कोशिश करना, यानी यहाँ गड्ढा खोदना है और वहाँ गड्ढा भरना है। उसके बजाय, वहाँ गड्ढा खोदकर यहाँ भरें, उस काम के कौन पैसे दे? प्रश्नकर्ता : नहीं देगा। दादाश्री : और ऊपर से दंड मिलता है कि यहाँ जमीन क्यों खोद वह है भूलों का स्वरूप अहंकार विलय हो जाए तो भूल खतम हो जाए। अहंकार यों ही विलय नहीं होगा। वह चटनी की तरह पीसने जैसा नहीं है। अहंकार तो भूलें दिखें, उतना विलय होता है। अहंकार यानी भूल का स्वरूप । इगोइजम, वह स्ट्रक्चर ही भूल का है। कहलाता क्या है कि स्वरूप का भान नहीं है, मतलब भान भूले हुए हैं। भान भूले हुओं में सारा इगोइज़म भान भूला हुआ है। तब भीतर क्या सामान है उसके पास, कि भीतर छोटीमोटी भूलें हैं ! वे भूलें मिटेंगी, तो काम होगा। निष्पक्षपाती हो जाए, तब खुद की भूलें दिखेंगी। वाणी तो भीतर सारे शास्त्रों की वाणी पड़ी हुई है। भूल मिटेगी,
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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