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________________ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! नहीं है, वह बोलता है। तो उसके साथ हम भौंकने जाएँ तो हम भी कुत्ता कहलाएंगे। इसलिए हम कहें, 'तेरा उपकार हैं, भाई।' प्रश्नकर्ता : अपने दोष के भाव उदय में आएँ, वे हम देखें और समझें, इसलिए उसका उपकार मानना चाहिए? दादाश्री : हाँ, जहाँ-जहाँ दोष होता हो, वहाँ उपकार मानना भीतर में, तो वह दोष बंद हो जाएगा। पुलिसवाले के ऊपर भी अभाव होता हो, तो उसका उपकार मानना। तब अभाव बंद हो जाएगा। आज कोई भी मनुष्य खटकता हो, तो कहना वह बहुत अच्छा मनुष्य है, वह तो हमारा उपकारी है, तो खटकना बंद हो जाएगा। मतलब ये जो शब्द हम देते हैं न, एकएक शब्द दवाईयाँ हैं। ये सब मेडिसिन हैं, दरअसल !! नहीं तो 'चोर कहे उसका उपकार मानना,' यह वाक्य किस तरह समझ में आए उसे? तब फिर आप मुझे पूछने नहीं आओ और आपके परिणाम सारे बदल जाएँ। इसलिए उसके बजाय, तुम उपकार मानना। दादा का इतना कहा मानना कि उसका उपकार है भाई, इन दादा ने कहा है इसलिए। प्रश्नकर्ता : दादा खुद उपकार मानते हों, फिर हम उपकार मानें, उसमें क्या हर्ज है फिर? दादाश्री : हाँ, हमें ऐसा हिसाब लगाना चाहिए कि, 'अच्छा है चोर ही कहा है। लुच्चा है, बदमाश है, नालायक है, ऐसा सब तो नहीं कहता' उतना अच्छा है न? नहीं तो उसका मुँह है, इसलिए ठीक लगे उतना बोले। उसे कुछ नहीं कहा जा सकता हमसे? हमें उपकार मानना है। उपकार मानने से अपना मन नहीं बिगड़ता। समझ में आया न? यह बात सैद्धांतिक है। कैसे, कि आप मुझसे कहो कि "दादा, वह आपको 'चोर' कहता है तो आप क्या करोगे?" तब मैं कहूँ कि, 'भाई, उपकार मानना।' क्यों कहते हैं कि उपकार मानो आप? 'किसके बदले?' तब कहते हैं, 'कोई कहता नहीं ऐसा? यह प्रतिघोष है किसीका, वह मेरा खुद का ही प्रतिघोष स्वरूप है। इसलिए उपकार मानता हूँ।' यह जगत् प्रतिघोष स्वरूप है। उसकी हन्ड्रेड परसेन्ट गारन्टी लिखकर देता हूँ मैं। यानी निजदोष दर्शन से... निर्दोष! हम भी उपकार मानते हैं, तो आपको भी उपकार ही मानना चाहिए न! और आपका मन बहुत अच्छा रहेगा। चोर कहते है', उसका उपकार मानते हैं! नहीं तो फिर आपको सहज ही भाव हो जाए कि दादा के लिए ऐसा बोलता है?! महावीर के लिए इतने बड़े-बड़े शब्द बोलते थे, फिर भी लोगों ने पचा लिया। उनके भक्तों ने, सभी ने पचाए उनके शब्द। जोजो बोलते, वह सब पचा लेते थे। भगवान ने सिखाया था ऐसा। 'यह' प्रपंच करनेवाला 'तू' ही प्रश्नकर्ता : इसलिए जगत् निर्दोष है, यह समझने की दृष्टि अब विकसित करनी पड़ेगी न? दादाश्री : इसलिए, इस बावड़ी में यदि हम नहीं बोले होते तो यह बखेड़ा ही नहीं होता। तब फिर हम सामनेवाले का दोष निकालते हैं कि तू मुझे ऐसा क्यों बोलता है? प्रपंच हमने खड़ा किया और फिर इसे कहते हैं कि तू मुझे ऐसी गाली क्यों देता है? इस पर कोई कहेगा, "उसने गाली दी, पर तू ऐसा कह न, 'तू राजा है।" तब ऐसा कहेगा, 'तू राजा है' बस यह तो सब प्रोजेक्शन हमारा ही है। अरे, ले बोधपाठ इस से लोग मुझे कहते हैं कि आपको अपने दोष कहने की क्या जरूरत है? फायदा क्या? मैंने कहा, 'आपको सीख देने के लिए कि आपको ऐसी हिम्मत आए।' मैं बोलता हूँ तो आपको हिम्मत नहीं आनी चाहिए क्या? हमेशा जो दोष हुआ हो, वह खुला करें तो मन पकड़ में आ जाता है। फिर मन डरता रहता है कि यह तो खुला कर देगा, खुला कर देगा।' उलटे हमसे डरता रहेगा। ये तो बहुत भले मनुष्य हैं। सब खुला कर देंगे। हमने तो कह दिया है कि हम सब खुला कर देंगे। ओपन टू स्काइ (पूर्ण अनावृत) कर देंगे। तब सारे दोष चले गए। तब विलय हो जाते हैं। भूल मिटाने की रीति.... आपकी कितनी भूलें होती होंगी?
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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