SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! दादाश्री : यहाँ सत्संग में बैठने से आवरण टूट जाते हैं, वैसे-वैसे दोष दिखते जाते हैं। प्रश्नकर्ता : दोष अधिक दिखें, उसके लिए जागृति कैसे आती है? दादाश्री : भीतर जागृति तो बहुत है, पर दोषों को ढूंढने की भावना हुई नहीं है। पुलिसवाले को जब चोर खोजने की इच्छा हो तब चोर मिल जाता है। पर यदि पुलिसवाला कहे कि, 'चोर को पकड़ने जैसा नहीं है। वह तो आएगा तब पकड़ेंगे।' तब फिर चोर मजे करेगा ही न? ये भूलें तो छुपकर बैठी हैं। उन्हें ढूँढो तो तुरन्त ही पकड़ में आती हैं। सभी कमाई का फल क्या है? आपके दोष एक के बाद एक आपको दिखें तब ही कमाई करी कहलाती है। यह सारा ही सत्संग खुद खुद के सभी दोष देखे उसके लिए है। और खुद के दोष दिखें, तभी वे दोष जाएँगे। दोष कब दिखेंगे? जब खुद 'स्वयं' होंगे, 'स्वस्वरूप' होंगे तब। जिसे खुद के दोष ज्यादा दिखें, वह ऊँचा। जब इस देह के लिए, वाणी के लिए, वर्तन के लिए संपूर्ण निष्पक्षपात उत्पन्न होता है तभी खुद, खुद के सभी दोष देख सकता है। अंधापन नहीं देखने देता दोष को तुझे तेरे दोष कितने दिखते हैं? और तू कितने दोष धो डालता है? प्रश्नकर्ता : दोष तो बहुत दिखते हैं। जैसे कि क्रोध है, लोभ रहा हुआ है। दादाश्री : वे तो चार-पाँच दोष, वे दिखें तो नहीं दिखे जैसे कहलाते हैं और किसीके दोष देखने हों तो कितने देख लेते हो? प्रश्नकर्ता : बहुत सारे दिखते हैं। दादाश्री : बहुत सारे देख लेता है तू? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : किसी दूसरे के तो, रास्ते चलते भी, तुझे चलना नहीं १६ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! आता, तू ऐसे चलता है, तू ऐसा है, सब बहुत तरह के दोष दिखते हैं, और खुद के मिलते नहीं। क्योंकि क्रोध-मान-माया-लोभ से अंध है। लोभ से अंध, क्रोध से अंध, माया से अंध, मान से अंधा, सब अंध स्वरूप है। खुली आँखों से अंधे होकर घूम रहे हैं. भटकते रहते हैं। कितनी उपाधी कहलाती है! खुली आँखों से सारा जगत् सो रहा है और सभी नींद में ही कर रहे हैं, ऐसा भगवान महावीर कहते हैं। क्योंकि खुद का अहित कर रहे हैं। खुली आँखों से अहित कर रहे हैं, और भगवान ने उसे भावनिद्रा कहा है। सारा जगत् भावनिद्रा में पड़ा हुआ है। मैं शुद्धात्मा हूँ.' ऐसा भान होने के बाद भावनिद्रा सर्वांश गई कहलाती है, जागृत हुए कहलाते हैं। बुद्धि की वकालत से, जीतते हैं दोष जागृत हुए, इसलिए सब पता चलता है कि यहाँ भूल होती है, ऐसे भूल होती है। नहीं तो खुद को खुद की एक भी भूल मिले नहीं। दोचार बड़ी भूलें होती हैं न, वे दिखती हैं। उसे खुद को दिखती है उतनी ही। कभी बोलते भी हैं कि ज़रा-सा क्रोध है और थोड़ा-सा लोभ भी है, ऐसा बोलते भी हैं, पर हम कहें कि, 'आप क्रोधी हैं', तब तुरन्त क्रोध का रक्षण करते हैं, बचाव करते हैं, वकालत करते हैं। हमारा क्रोध, वह क्रोध नहीं माना जाता, ऐसी वकालत करते हैं, और जिसकी वकालत करो वह हमेशा आप पर चढ़ बैठता है। जगत् के सारे लोगों को क्रोध-मान-माया-लोभ निकालने हैं, किसे निकालने की इच्छा नहीं होगी? वे तो बैरी ही हैं, ऐसा सब जानते हैं, फिर भी रोज़ भोजन कराते हैं और बड़ा करते हैं। खद की भल ही दिखे नहीं, फिर मनुष्य भूलों को खुराक ही देगा न! करें ज्ञानी इकरार, निजदोषों के भूल हुई हो, पर उसका आयुष्य किस तरह बढ़ता है, वह मैं जानता था। इसलिए क्या करता था? सभी बैठे हों और कोई एक जना आकर
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy