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________________ उन्हें कोई व्यक्ति से, कोई धर्म से, कोई व्यु पोईन्ट' से मतभेद नहीं होता। विनाशी वस्तुओं में सनातन सुख की शोध के लिए यह द्रष्टि अनंत अवतार से भटकती है। इस मिथ्यात्व द्रष्टि को लोकद्रष्टि और भी अवगाढत्व देती है। लोकद्रष्टि तो दक्षिण को उत्तर मानकर चलाती है। एक बार 'ज्ञानी' की द्रष्टि से द्रष्टि मिल जाये, एक हो जाये तो निज स्वरूप द्रष्टि में आ जाता है। निज स्वरूप में ही सनातन सुख है, जिसका एक बार अनुभव हो जाता है फिर वह कभी नहीं जाता। फिर द्रष्टि की विनाशी वस्तुओं में सुख की खोज पूरी हो जाती है और अविनाशी आत्मतत्त्व का, स्वाभाविक सुख का वेदन निरंतर रहता है। सक्कर मीठी होती है। ऐसी मीठी होती है, शहद से भी अच्छी, गुड़ से भी उमदा, ऐसा वर्णन हम सुनते है किन्तु कोई सक्कर मूंह में डालकर उसके स्वाद का स्वयं अनुभव नहीं कराता। 'ज्ञानी पुरुष' ही ऐसे है जो तुर्त ही मुंह में सक्कर रखकर अनुभव कराते है। आत्मा ऐसी है, वैसी है, ऐसी बातों से कुछ नहीं बनता, वह तो 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा से उसकी अनुभूति हो, तब छूटकारा होता है, अन्यथा नहीं। तमाम शास्त्र नयी द्रष्टि दे सकते है किन्तु द्रष्टि कोई नहीं बदल सकता। द्रष्टि बदलना तो 'ज्ञानी पुरुष' के सिवा नामुमकिन है। अवस्था द्रष्टि को मिटाकर आत्मद्रष्टि कराना, यह केवल 'ज्ञानी पुरुष' का काम है। जिसकी आत्मद्रष्टि हुई है, जो अन्यों को आत्मद्रष्टि करा सकते है। खुद मिथ्या द्रष्टिवाला है, वह दूसरों की मिथ्याद्रष्टि कैसे तोड सकता है? आत्मा निरालंब वस्तु है, किन्तु उसे पाने के लिए 'ज्ञानी पुरुष' का आलंबन लेना पडता है, क्योंकि आत्मप्राप्ति का 'ज्ञानी पुरुष' अंतिम साधन है। 'अक्रम ज्ञानी' ने जो आत्मा देखी है, अनुभव की है, वह आत्मा कुछ और है, कल्पनातित है। इसलिए तो वे, जो लाखों जन्मों में नहीं बदली जाती वह द्रष्टि एक घंटे में बदल देते है। एक घंटे में देह और आत्मा को भिन्न अनुभव करानेवाले ज्ञानी की अपूर्व, अजोड़, अद्भूत सिद्धि के प्रति सानंदाश्चर्य अवक्तव्य, भावसभर उद्गार के सिवा अन्य क्या हो सकता है!! एक बार तो एतबार ही नहीं आता किन्तु 'ज्ञानी पुरुष' के प्रत्यक्ष योग की युति करके, सर्व भाव चरणों मे समर्पित करके, परम विनय से, आत्मा प्राप्त जो कर लेता है, उसकी तो दुनिया ही बदल जाती है। संसार के सारे दु:खो से मुक्ति मिलती है। संसार की आधि, व्याधि और उपाधि में निरंतर समाधि, सहज समाधि रहती है। वाचक को इस बात पर एतबार नहीं आये ऐसी ही यह बात है, किन्तु यह अनुभवपूर्ण हकीक़त है। आज वीस हजार पुण्यात्माओं ने ऐसी प्राप्ति की है और भीतर में निरंतर आत्मसुख में रहते है और बाहर जीवन व्यवहार में, घर में, इस घोर कलियुग में भी सत्युग जैसा, स्वर्ग जैसा सुख पा रहे है। बलिहारी तो उस ज्ञान की है, जो इस काल में धूपकाल के रण में मध्याहन् समय में विशाल वटवृक्ष के समान होकर अपनी शीतल छाँव में तप्तजनों को भीतरी-बाहरी शीतलता प्रदान करता है। निरंतर आत्मा में ही जिनका वास है, जो केवल मोक्ष स्वरूप हो गये है। जिनका मन-वचन-काया का मालिकी भाव संपूर्ण खत्म हो चूका है, अहंकार-ममता संपूर्ण विलय हो गये है ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' आज कलिकाल में सच्चे मुमुक्षुओं के लिए ही प्रगट हुए है। हर रोज अलौकिकता के दर्शन नये नये रुप से बरसों से होते रहते है। असीम को कलम से कैसे सिमित किया जाये? फिर भी 'ज्ञानी पुरुष' का अल्प परिचय कागज-कलम की मर्यादा में रहकर दिया है। संपूर्ण अनुभव तो उनके प्रत्यक्ष योग से ही उपलब्ध होता है। संपूज्य 'दादाश्री' गुजराती भाषी है किन्तु हिन्दी भाषीओं के साथ कभी कभी हिन्दी में बोल लेते थे। उनकी हिन्दी 'प्योर' हिन्दी नहीं है. फिर भी सुननेवाले को उनका अंतर आशय 'एक्झेट' पहुँच जाता है। उनकी वाणी हृदयस्पर्शी, हदयभेदी होने के कारण जैसी निकली वैसी ही संकलित करके प्रस्तुत की गई है ताकि सुज्ञ वाचक को उनके 'डिरेक्ट' शब्द पहुंचे। उनकी हिन्दी याने गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी का मिश्रण। फिर भी सुनने में, पढ़ने में बहुत मीठी लगती है, नेचरल लगती है, जीवंत लगती है। जो शब्द है, वह भाषाकीय द्रष्टि से सीधे-सादे है किन्तु 'ज्ञानी पुरुष' का
SR No.009585
Book TitleGyani Purush Ki Pahechaan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Foundation
Publication Year2003
Total Pages43
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size325 KB
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