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________________ 'ज्ञानी पुरुष' के श्रीमुख से निकले हुए प्रत्येक शब्द, एक-एक शब्द नये शास्त्रों की रचना कर देते है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुरूप निकली हुई उनकी वाणी संपूर्ण निमित्ताधीन निकलती है, जिसके निमित्त से 'डिरेक्ट' निकली, उसके तो सर्व आवरण भेद हो जाते है, इतना ही नहीं, जो दूर बैठा सूनता है या पुस्तक द्वारा पढ़ता है, उसका भी काम हो जाता है। क्योंकि यह 'ज्ञानी पुरुष' आज प्रगट है, प्रत्यक्ष है, हाजिर है। 'ज्ञानी पुरुष' की वाणी को प्रत्यक्ष सरस्वती कही जाती है। क्योंकि उनके भीतर के प्रगट परमात्मा को स्पर्श करके यह वाणी निकलती है। जो श्रोता के सर्व आवरण को भेदकर डीरेक्ट आत्मा को स्पर्श करती है और ज्ञान प्रकाश प्रगट करती है। यह चैतन्य वाणी सूननेवालों के अनंत अवतार के पापों को भस्मीभूत करती है। यह वीतराग वाणी होती है और वीतराग वाणी ही मोक्ष में ले जाती है। __'ज्ञानी पुरुष' की वाणी अपूर्व होती है, पूर्वानुपूर्वी की नहीं। उनके मुख से निकला हुआ सीधा-सादा घरेलु द्रष्टांत ऐसी द्रष्टि से देखकर बयान किया जाता है कि श्रोता का हृदय 'मेरे स्वानुभव की ही बात है' कह कर नाच उठता है। उनकी गहन से गहन बात बिलकुल सीधे-सादे, सबके अनुभव के द्रष्टांतो से मर्मस्थान को ही सुस्पष्ट करती है। वे सादी-सरल गांवठी भाषा में घरेलु बातों से लेकर तत्त्वज्ञान की गहन बातों का विस्फोट करते है। बड़े बड़े तत्त्वज्ञानी या पंडितों से लेकर भोली भाली अनपढ़ बुढ़िया भी गहन से गहन बात अति अति सरलता से समज जाती है। उनकी बात समझाने की शैली और उनके प्रत्येक द्रष्टांतादि मौलिक होते है। 'ज्ञानी पुरुष' की वाणी हित, मित, प्रिय और सत्य होती है। वे हमेशा सामनेवाले के आत्महित में ही बोलते है, खुद के लाभ की कभी द्रष्टि ही नहीं होती। 'ज्ञानी पुरुष' में अपनापन होता ही नहीं और इसलिए उनकी वाणी सामनेवाले के साथ के व्यवहार के अनुसार निकलती है। जैसा जिसका व्यवहार, वैसी वाणी का उदय। जिसे किसी के भी साथ राग-द्वेष नहीं, किसी भी प्रकार की कोई कामना नहीं, कोई इच्छा नहीं ऐसे वीतराग पुरुष की वाणी सामनेवाले के दर्द के अनुसार निकलती है। 17 यदि वह पुण्यात्मा हो और रोग खत्म होने पर आया हो तो 'ज्ञानी पुरुष' के कठोर शब्द निकलकर उसके रोग को खत्म कर देते है। उनको किसी भी चीज की अपेक्षा नहीं, किसी से कोई 'घाट' नहीं, इसलिए वह नीडरता से सामनेवाले के आत्महित को लक्ष में ही रखकर स्पष्ट नग्न सत्य कह देते है, क्योंकि उनमें अपार करुणा होती है। 'ज्ञानी पुरुष' का एक वाक्य अगर सीधा भीतर में उतर गया तो वह मोक्ष में ले जाये ऐसा होता है। 'ज्ञानी पुरुष' तो सीधा मोक्षमार्ग ही बता देते है, फिर शास्त्रों को पढ़ने की जरुरत ही नहीं। 'ज्ञानी पुरुष' के शब्द में खुद की किंचित् ही बुद्धि चलाने में बहुत बड़ा धोखा है। और एक ही शब्द जैसा का वैसा ही पच गया तो वह शब्द ही उसे मोक्ष में ले जायेगा। 'ज्ञानी पुरुष' की वाणी सामनेवाले के पुण्य के आधीन नीकलती है। वे 'खुद' तो बोलते ही नहीं। वे तो सिर्फ 'देखते' है कि कैसी वाणी निकलती है और सामनेवाले का पुण्य कितना है। हरेक धर्म का, किसी भी प्रश्न का वे समाधान करा सकते है। 'ज्ञानी पुरुष' की 'टेपरेकर्ड' सारा दिन चलती है फिर भी भगवान ने उन्हें मुनि कहा। स्व-पर के आत्मार्थ सिवा अन्य कोई भी हेतु जिस वाणी में नहीं, वह वाणी सारा दिन बोली जाये तो भी वे मनि नहीं, महामनि है। इसे परमार्थ मौन कहते है। बाकी भीतर में क्लेश, मनदुःख और बाहर में मौन, उसे सच्चा मुनि कौन कहेगा? _ 'ज्ञानी पुरुष' संयमी होते है। जब वाणी-वर्तन संयमित होता है, तब व्यवहार पूर्ण होता है। उनके वाणी, वर्तन और विनय मनोहर होते है। 'ज्ञानी पुरुष' की बात हमारा आत्मा ही कबुल कर लेती है। क्योंकि हमारे अंदर वे ही बैठे हुए है, उनको कोई भेद नहीं होता, यदि हम जानबुझकर टेढ़ाई न करें तो! _ 'ज्ञानी पुरुष' श्रद्धा की परम मूर्ति है याने उनको मात्र देखते ही श्रद्धा आ जाती है। उनके पास श्रद्धा रखनी नहीं पडती, स्वयं आ जाती है। ऐसी श्रद्धा की मूर्ति कोई काल में नहीं होती। आज है तो उनका अनुसंधान
SR No.009585
Book TitleGyani Purush Ki Pahechaan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Foundation
Publication Year2003
Total Pages43
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size325 KB
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