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________________ दादा भगवान? दादा भगवान? फोन का ख़लल भी नहीं रखा मुझ से कहने लगे कि, 'हम फोन लगवायें।' मैंने कहा, 'नहीं. उस बला से कहाँ लिपटें फिर? हम चैन की नींद सो रहें हो और घंटी बजने लगे, ऐसी झंझट क्यों मोल लें? लोग तो शौक की खातिर रखते है कि हमारी शान बढ़ेगी। इसलिए शानवाले, लोगों के लिए लाज़िम हैं। हम ठहरे मामूली आदमी, चैन की नींद सोनेवाले, सारी रात निजी स्वतंत्रता में सोयें। मतलब कि वह टेलिफोन कहाँ रखें? फिर घंटी बजी कि परेशानी शुरू! मैं तो दूसरे ही दिन उठाकर बाहर फेंक दूंगा। जरा-सी घंटी बजी नहीं कि नींद में खलल हो जाए। शायद मच्छर-खटमल खलल पहुँचाये तो अनिवार्य है पर यह तो ऐच्छिक है, इसे कैसे बर्दाश्त करें? पहले हम मोटरकार रखते थे। तब ड्राईवर आकर कहता, 'साहिब, फलाँ पार्ट टूट गया है।' मुझे तो पार्ट का नाम भी नहीं आता था। फिर मुझे लगा कि यह तो फँसाव है! फँसाव तो वाइफ के साथ हो गया और परिणाम स्वरूप बच्चे हुए। और एक बाज़ार खड़ा करना हो तो कर सकते हैं पर ऐसे फँसानेवाले दो-चार बाजारों की क्या आवश्यकता है? ऐसे फिर कितने बाजार लिए घुमतें फिरें? यह तो सारी कॉमनसेन्स की बातें कहलायें। वह ड्राईवर यों ही गाडी में से पेट्रोल निकाल लेगा और आकर बोलेगा, कि 'चाचाजी, पेट्रोल डलवाने का है?' अब चाचाजी क्या जाने कि यह क्या बला है? इसलिए फिर हम मोटरकार नहीं रखते थे। वहाँ सुख नहीं देखा प्रश्नकर्ता : दादाजी, हमें यह सब कुछ चाहिए और आपको कुछ नहीं चाहिए इसकी वजह क्या है? उस रोड पर घुम-फिरकर जाते हैं। जबकि मैं हिसाब लगाऊँ कि सीधे जाए तो एक मील होगा और घुमकर जाने पर तीन मील होंगे, यदि आधी गोलाई काट दें तो डेढ़ मील का फासला रहेगा, इसलिए मैं बीच में से सीधा निकल जाऊँ। लोगों के कहे अनुसार कहीं चला जाता है क्या? लोकसंज्ञा नाम मात्र को भी नहीं थी। लोगों ने जिसमें सुख समझा, उसमें मुझे सुख नज़र नहीं आया। रुचि, केवल अच्छे वस्त्रों की ही केवल एक ही बात का शौक था कि कपड़े फर्स्ट क्लास पहनता हूँ। उसे आदत कहिये या फिर मान के लिए। उसकी वजह से अच्छे वस्त्र पहनने की आदत सी है, और कुछ भी नहीं। घर जैसा भी हो चला लूँगा। प्रश्नकर्ता : बचपन से ही न? दादाश्री : हाँ, बचपन से। प्रश्नकर्ता : स्कूल जाते समय भी अच्छे वस्त्र क्या? दादाश्री : स्कूल जाते समय या ओर कहीं भी हर जगह वस्त्र अच्छे से अच्छे चाहिए। अर्थात् बस इतना ही...अकेले वस्त्रों में ही शक्ति का व्यय हुआ है। कपडे सिलवाते समय फिर दर्जी से कहना पड़ता कि. 'देखना भैया. यह कालर ऐसी चाहिए. ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए।' और किसी चीज़ में शक्ति का व्यय नहीं हुआ। ब्याहने में भी शक्ति खर्च नहीं की थी। दादाश्री : वह तो आप, लोगों से सीखकर कहतें हैं। मैंने लोगों से नहीं सीखा। मैं पहले से ही लोगों से विरुद्ध चलनेवाला आदमी। लोग जिस राह चलते हों, वह रास्ता गोलाकार में आगे से मुड़कर जाता हो, लोग अनुत्तीर्ण हुए मगर योजना अनुसार मेरे पिताजी और बड़े भैया ने दोनों ने मिलकर गुप्त मंत्रणा की थी कि, हमारे परिवार में एक सूबेदार हो गये है, इसलिए इसे भी मैट्रिक होने पर सूबेदार बनाएँ। यह गुप्त मंत्रणा मैंने सुन ली थी। उनकी सूबेदार बनाने
SR No.009584
Book TitleDada Bhagvana Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2007
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size283 KB
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