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________________ दादा भगवान? १७ १८ दादा भगवान? कहा, 'आहिस्ता-आहिस्ता तेरी समझ में आयेगा।' इस पर मैंने कहा, 'ठीक है, साहिब।' पर मुझे तो बड़े-बड़े विचार आने लगे कि भगवान मुझे मोक्ष में ले जाएँ, फिर वहाँ मुझे बिठाया होगा और उनकी पहचानवाला कोई आने पर मुझे कहेंगे, 'चल ऊठ यहाँ से' तब? नहीं चाहिए तेरा ऐसा मोक्ष ! उसके बजाय बीवी के साथ प्याज के पकौडे खायें और मौज उडाएँ तो क्या बुराई है उसमें? उसकी तुलना में यह मोक्ष बेहतर है फिर! वहाँ कोई ऊठानेवाला हो और मालिक हो तो ऐसा मोक्ष हमें नहीं चाहिए। अर्थात् तेरह साल की उम्र में ऐसी स्वतंत्रता जागृत हुई थी की मेरा कोई भी मालिक हो तो ऐसा मोक्ष हमें नहीं चाहिए। और यदि नहीं है तो हमारी यही कामना है कि कोई मालिक नहीं और कोई मुझे अन्डरहैन्ड नहीं चाहिए। अन्डरहैन्ड मुझे पसंद ही नहीं है। बैठे हो वहाँ से कोई उठाये ऐसा मोक्ष मुझे नहीं चाहिए। जहाँ मालिक नहीं, अन्डरहैन्ड नहीं, ऐसा यह वीतरागों का मोक्ष मैं चाहता हूँ। उन दिनों मालूम नहीं था कि वीतरागों का मोक्ष ऐसा है। पर तब से मेरी समझ में आ गया था कि मालिक नहीं चाहिए। उठ यहाँ से कहे, ऐसा तेरा मोक्ष मैं नहीं चाहता। ऐसा भगवान रहें अपने घर। मुझे क्या काम है तेरा? तु यदि भगवान है तो मैं भी भगवान हूँ! भले ही, तू थोड़ी देर के लिए मुझे तेरे अंकुश में लेने की ताक में हो! आइ डोन्ट वान्ट (मुझे जरूरत नहीं)! ऐसी भूख किस लिए? इन पाँच इन्द्रियों के लालच के खातिर क्या? क्या रखा है इन लालचों में? जानवरों को भी लालच है और हमें भी लालच है, फिर हमारे में और जानवरों में अंतर क्या रहा? परवशता, आई डोन्ट वान्ट किसी की नौकरी नहीं करूँगा ऐसा पहले से ही खयाल रहा था। नौकरी करना मुझे बहुत दु:खदायी लगता था। यों ही मौत आ जाए तो बेहतर पर नौकरी में तो बॉस (मालिक) मुझे डाँटे वह बर्दाश्त से बाहर था। 'में नौकरी नहीं करूँगा' यह मेरी बड़ी बीमारी रही और इसी बिमारी ने मेरी रक्षा की। आखिर एक दोस्त ने पूछा, 'बड़े भैया घर से निकाल देगें तब क्या करोगे?' मैंने कहा, 'पान की दुकान करूँगा।' उसमें भले ही रात दस बजे तक लोगों को पान खिलाकर, फिर ग्यारह बजे घर पर जाकर सोने को मिले। उसमें चाहे तीन रुपये मिले तो तीन में ही गज़ारा करूँगा और दो मिले तो दो में चलाऊँगा, मुझे सब निबाहना आता है, पर मुझे परतंत्रता बिलकुल पसंद नहीं है। परवशता, आई डोन्ट वान्ट (मुझे नहीं चाहिए)। __ अन्डरहैन्ड को हमेशा बचाया जीवन में मेरा धंधा क्या रहा? मेरे ऊपर जो हो उनके सामने मुकाबला और अन्डरहैन्ड (अधिनता में काम करनेवाले)की रक्षा। यह मेरा नियम था। मुकाबला करना मगर अपने से ऊपरवाले के साथ। संसार सारा किसके वश में रहता है? मालिक (अपने से जो ऊपर हो) के! और अन्डरहैन्ड को डाँटते रहें। पर मैं मालिक के सामने बलवा कर दूँ, इसके कारण मुझे लाभ नहीं हुआ। मुझे ऐसे लाभ की परवा भी नहीं थी। पर अन्डरहैन्ड को अच्छी तरह से संभाला था। जो कोई अन्डरहैन्ड हो उसकी हर तरह से रक्षा करना, यह मेरा सबसे बड़ा उसूल रहा। प्रश्नकर्ता : आप क्षत्रिय है इसलिए? दादाश्री : हाँ, क्षत्रिय, यह क्षत्रियों का उसूल, इसलिए राह चलते किसी की लड़ाई होती हो तो जो हारा हो, जिसने मार खाई हो उसके पक्ष में रहता था, यह क्षत्रियता हमारी। बचपन का शरारती स्वभाव हमें तो सब नज़र आता है, बचपन की ओर मुड़ने पर बचपन नज़र आये। इसलिए हम वह सारी बात बतायें। पसंद आये ऐसी चीज़ नज़र आने पर हमारा बोलना होता है, वरना हम ऐसा कहाँ याद रखें? हमें अंत तक, बचपन तक का सब नज़र आता रहे। सारे पर्याय नज़र आयें। ऐसा था.. ऐसा था..., फिर ऐसा हुआ, स्कूल में हम घंटी बजने के बाद जाया करते थे, वह सारी बातें हमें दिखती हैं। मास्टरजी मुझे कह नहीं पाते थे, इसलिए चिढ़ते रहते थे।
SR No.009584
Book TitleDada Bhagvana Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2007
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size283 KB
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