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________________ दान दान अनन्य भक्ति, वहाँ दिया जाता है हमें मोक्ष में जाना है, वहाँ मोक्ष में जा पाएँ उतना पुण्य चाहिए। यहाँ आप सीमंधर स्वामी का जितना करोगे, वह सब आपका आ गया। बहुत हो गया। उसमें ऐसा नहीं कि यह कम है। उसमें तो आपने जो (देने के लिए) धारणा की हो, वह सब करो। तो सब हो गया। फिर इससे अधिक करने की जरूरत नहीं। फिर अस्पताल बनवाएँ या और कुछ बनवाएँ, वह सब अलग रास्ते पर जाता है। ये हैं जीते-जागते देव लक्ष्मी के सदुपयोग का सबसे सच्चा रास्ता कौन-सा है अभी? तब कहें, 'बाहर दान देना वह? कॉलेज में पैसे देने वह?' तब कहें. नहीं! अपने इन महात्माओं को चाय-पानी, नाश्ता करवाओ। उन्हें संतोष देना, वह सबसे अच्छा रास्ता। ऐसे महात्मा वर्ल्ड में मिलेंगे नहीं। वहाँ सतयुग ही दिखता है और सभी आएँ हो तो आपका किस प्रकार भला हो, यही सारे दिन भावना। पैसे नहीं हों न, तो उसके वहाँ भोजन करो, रहो, वह सब अपना ही है। आमने-सामने पारस्पारिक है। जिसके पास सरप्लस है, वह खर्ची । और अधिक हों तो मनुष्य मात्र को सुखी करो, वह अच्छा है और उससे भी आगे, जीव मात्र के सुख के लिए खर्च करो। बाकी स्कूलों में दो, कॉलेजों में दो, उससे नाम होगा, पर सच्चा यह है। ये महात्मा बिलकुल सच्चे हैं, उसकी गारंटी देता हूँ, भले कैसे भी होंगे। पैसे कम होंगे, फिर भी उनकी नीयत साफ़, भावना भी बहुत सुंदर है। प्रकृति तो अलग-अलग होती ही हैं। ये महात्मा तो जीते-जागते देव हैं। आत्मा भीतर प्रकट हो चुका है। एक क्षण भी आत्मा को भूलते नहीं। वहाँ आत्मा प्रकट हुआ है, वहाँ भगवान हैं। प्रश्नकर्ता : लोगों को भोजन कराएँ वह फलता नहीं? दादाश्री : वह फलता है न। पर यहीं के यहीं वाह-वाह होती है. उतना ही। उसका फल यहीं का यहीं मिल जाता है। और वह वहाँ मिलता है, वाह-वाह नहीं होती, वह वहाँ मिलता है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् साथ ले जाना, ऐसा न? दादाश्री : वह साथ ले जाने का। यह आपने दस दिए वे साथ ले जाएँगे और वाह-वाह हुई तो खर्च हो गया। प्रश्नकर्ता : तो कल से सबको भोजन करवाना बंद कर देना पड़ेगा। दादाश्री: भोजन करवाना, वह तो आपके लिए अनिवार्य ही है। अनिवार्य से तो किए बिना छुटकारा ही नहीं होता। यह तो ऐसा है न, इन महात्माओं को भोजन करवाना, और बाहर के लोगों को खिलाना, वह अलग चीज़ है। वह वाह-वाह का कार्य है। यहाँ कोई वाह-वाह कहने नहीं आए हैं। ये महात्मा तो! वर्ल्ड में कोई ऐसे पुरुष नहीं मिलनेवाले, या ऐसे ब्राह्मण नहीं मिलनेवाले, कि ऐसे हों, कि जिन्हें कुछ भी आपका लेने की इच्छा नहीं, कोई भी दृष्टिफेर ही नहीं इन महात्माओं को। ये महात्मा कैसे हैं, जो किसी भी प्रकार का लाभ उठाने में नहीं पड़े हैं, तब ऐसे महात्मा कहाँ से होंगे? यह तो संसार सारा स्वार्थवाला, ये महात्मा तो करेक्ट (सही) लोग। ऐसे लोग ही नहीं होते न. इस दनिया में होंगे ही नहीं न! ऐसी इच्छा ही नहीं होती कि यह डॉक्टर मेरे काम के हैं। ऐसा उनके मन में विचार भी नहीं आता और अन्य लोग तो डॉक्टर आए कि तुरन्त सोचते हैं कि किसी दिन काम आएँगे। तो क्या मुए, केवल दवाई खाने के लिए? स्वस्थ है, फिर भी दवाई खाने दौड़ता है?
SR No.009583
Book TitleDaan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size322 KB
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