SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ दान वाह-वाह करते थे! पर उसे वे 'खुद' स्वीकार करते नहीं न! और ये भूखे लोग तो तुरन्त स्वीकार लेते हैं। दान का पता चले बिना रहता नहीं न! लोग तो वाह-वाह किए बगैर रहेंगे नहीं, पर खुद उसे स्वीकार नहीं करे तो फिर क्या हर्ज है? स्वीकार करे तो रोग पैठे न? जो वाह-वाह स्वीकारता नहीं उसे कुछ भी होता नहीं। वाह-वाह खुद स्वीकारता नहीं है। इसलिए उसे कोई नुकसान नहीं होता और बखान करता है, उसे पुण्य बंधता है। सत्कार्य की अनुमोदना का पुण्य बंधता है। अर्थात् ऐसा सब अंदरूनी तौर पर है। ये तो सब कुदरत के नियम हैं। जो बखान करे उसे वह कल्याणकारी होता है। फिर जो सने उसके मन में अच्छे भाव के बीज पड़ते हैं कि 'यह भी करने योग्य है। हम तो ऐसा जानते ही नहीं थे!' प्रश्नकर्ता : हम अच्छा कार्य तन, मन और धन से कर रहे होते हैं, पर कोई हमारा बुरा ही बोले, अपमान करे तो उसका क्या करें? दादाश्री : हाँ, पर मैं क्या कहना चाहता हूँ कि यह स्वभाव, प्रकृति जाती नहीं न! तब फिर मैंने पता लगाया। वैसे लोग मुझे कहते थे कि 'बहुत नोबल हो आप!' मैंने कहा, 'यह कैसे नोबल?' यहाँ पर कंजूसी करते हैं। फिर ढूँढा तो मुझे पता चला कि मेरी वाह-वाह करे, वहाँ लाख रुपये खर्च डालता था, नहीं तो रुपया भी नहीं देता था। वह स्वभाव बिलकुल कंजूस नहीं था, पर वाह-वाह न करे, वहाँ धर्म हो या चाहे जो हो, पर वहाँ दे नहीं पाता था। और वाह-वाह किया कि सब कमाई लुटा देता था। उधार करके भी। अब वाह-वाह कितने दिन? तीन दिन । फिर कुछ भी नहीं। तीन दिन तक चिल्लाएँ ज़रा, फिर बंद हो जाता है।। देखो न, मुझे याद आता है। सौ देने के, वहाँ पचहत्तर वापस लूँ। मुझे आज भी दिखता है, अब भी। वह ऑफिस दिखाई देता है। पर मैंने कहा, 'ऐसा ढंग!' ये लोगों के कितने बड़े मन होते हैं ! मैं अपने ढंग को समझ गया था। ढंग सारे। यों बड़ा मन भी था। पर वाह-वाह, गुदगुदी करनेवाला चाहिए। गुदगुदी की कि चल पड़ा। प्रश्नकर्ता : दादाजी, वह जीव का स्वभाव है? दादाश्री : हाँ, वह प्रकृति, सारी प्रकृति है। और ये पक्के, वे (बनिए) बैठे हैं न, वे पक्के । वे वाह-वाह से ठगे नहीं जाते। वे तो सोचें कि आगे जमा होता है या यहीं का यहीं रहता है? वह वाह-वाहवाला तो यहीं भुना लिया, उसका फल तो ले लिया मैंने, चख लिया मैंने। और ये तो वाह-वाह नहीं खोजते, वहाँ फल खोजते हैं वे। ओवरड्राफ्ट, बड़े पक्के, विचारशील लोग न! हमारे एक से ज्यादा विचारशील। हम क्षत्रिय लोगों का तो एक वार और दो टुकड़े। सारे तीर्थंकर क्षत्रिय ही थे। साधु खुद कहते हैं, 'हम तीर्थंकर नहीं हो सकते। क्योंकि हम साध हो जाएँ तो अधिक त्याग करके भी एकाध गिन्नी रहने देते हैं अंदर ! किसी दिन अड़चन पड़े तो?' वह उनकी मूल ग्रंथि और आप तुरंत देते हो। प्रोमिस टु दादाश्री : जो अपमान कर रहा है, वह भयंकर पाप बाँध रहा है। अब इसमें हमारा कर्म धुल जाता है और अपमान करनेवाला तो निमित्त बना। वाह-वाह की प्रीति अरे, मैं तो अपना स्वभाव नाप लेता था! मैं अगास जाता था। उस समय कॉन्ट्रेक्ट का व्यवसाय था। अब सौ रुपये की कछ कमी नहीं थी. उन दिनों पैसों की क़ीमत बहुत थी। पैसों की कमी नहीं थी, फिर भी मैं अगास जाऊँ, तब वहाँ रुपये लिखवा देता। तब सौ रुपये का नोट निकालकर कहता कि 'लो, पच्चीस ले लो और पचहत्तर वापस दो।' अब पचहत्तर वापस नहीं लिए होते तो चलता। पर मन कंजूस और भिखारी, इसलिए पचहत्तर वापस लेता था। प्रश्नकर्ता : दादाजी, आप तब भी कितना सूक्ष्म देखते थे?
SR No.009583
Book TitleDaan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size322 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy