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________________ दान दादाश्री : दान यानी क्या कि देकर लो। यह जगत् प्रतिघोष स्वरूप है। इसलिए जो आप करो वैसा प्रतिघोष सुनने को मिलेगा, उसके ब्याज के साथ। इसलिए आप दो और लो। यह पिछले अवतार में दिया, अच्छे कार्य में पैसे खर्च किए थे, ऐसा कुछ किया था, उसका हमें फल मिला। अब फिर ऐसा नहीं करो तो धूलधानी हो जाएगा। हम खेत में से गेहूँ तो ले आए चार सौ मन पर भाई वह पचास मन बोने नहीं गया तो फिर ? । प्रश्नकर्ता तो उगेंगे नहीं। : दादाश्री : ऐसा है यह सब इसलिए देना। उसका प्रतिघोष होगा ही, वापस आएगा, अनेक गुना होकर। पिछले अवतार में दिया था, इसलिए तो अमरीका आ पाए, नहीं तो अमरीका आना आसान है क्या? कितने पुण्य किए हों, तब प्लेन में बैठने को मिलता है। कितने ही लोगों ने तो प्लेन देखा तक नहीं है। लक्ष्मी वहीं वापस आती है आपका घर पहले श्रीमंत था न ? प्रश्नकर्ता: ऐसे सभी पूर्वकर्म के पुण्य । दादाश्री : कितनी अधिक लोगों को हैल्प की हो, तब लक्ष्मी हमारे यहाँ आती है, नहीं तो लक्ष्मी आए नहीं न! जिसे ले लें ऐसी इच्छा है, उसके पास लक्ष्मी नहीं आती। आए तो चली जाती है, रुकती नहीं है। जैसे-तैसे करके ले लेना है, उसके वहाँ लक्ष्मी आती नहीं। लक्ष्मी तो देने की इच्छावाले के यहाँ ही आती है। जो औरों के लिए घिसे, ठगे जाएँ, नोबिलिटी रखें, वहाँ आती है। वैसे चली गई, ऐसा लगता है, मगर आकर फिर वहीं खड़ी रहती है। देखना ! दान रह न जाए वह तो आए, तभी दिया जाए न और कुछ नहीं हो तो मन में क्या २० दान सोचें, जानते हो? जब मेरे पास आएँ तब दे देने हैं। और आएँ, तब गड्डी एक ओर रख देता है। नहीं तो मनुष्य का स्वभाव कैसा है कि होता है अभी? अभी डेढ़ लाख हैं, दो लाख पूरे हों फिर दूँगा। और वैसे के वैसे वो रह जाता है। ऐसे कामों में तो आँख मींचकर दे दिया वह सोना । प्रश्नकर्ता: दो लाख हो जाएँ, तब खर्च करूँ, ऐसा कहनेवाला मनुष्य ऐसे करते-करते ही चला जाए तो? दादाश्री : वह चला जाए और रह भी जाए। रह जाए मगर कुछ हो सकता नहीं। जीव का स्वभाव ही ऐसा है। फिर नहीं हों तब कहेगा 'मेरे पास आएँ तो तुरंत दे देने हैं!' आएँ कि तुरंत दे देने है। अब आएँ, तब यह माया उलझा देती है। अभी है तो किसी आदमी ने साठ हजार रुपये वापिस नहीं दिए, तब कहेगा, चलेगा अब । चलो कुछ है, अपने नसीब में नहीं थे। वहाँ छूटते हैं, पर यहाँ नहीं छूटते । मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है। माया उलझाती है उसे। वह तो हिम्मत करे तभी दिया जाता है। इसलिए हम ऐसा कहते हैं कि 'कुछ कर' फिर माया उलझाती नहीं है। फूल नहीं तो फूल की पंखुड़ी। वह भी एक अंगुली का आधार देने की ज़रूरत है, अपने-अपने सामर्थ्य अनुसार । बीमार मनुष्य को भी ऐसे हाथ लगाने में क्या हर्ज है? सच्चा दानवीर कभी भी कम न पड़े, उसका नाम लक्ष्मी फावड़े से खोद-खोदकर धर्म के लिए दिया करें, तब भी कम न पड़े उसे लक्ष्मी कहते हैं। यह तो धर्म में दें तो बारह महीने में दो दिन दिया हो, उसे लक्ष्मी कहते ही नहीं। एक दानवीर सेठ थे। अब दानवीर नाम कैसे पड़ा? उसके वहाँ सात पुश्तों से धन देते ही रहते थे। फावड़े से खोदकर ही देते थे। तो जो आया उसीको। आज फलाँ आया कि मुझे बेटी ब्याहनी है, तो उसे दिए। कोई ब्राह्मण आया उसे दिए। किसी को दो हज़ार की ज़रूरत हो तो उसे दिए। साधु-संतों के लिए,
SR No.009583
Book TitleDaan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size322 KB
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