SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चिंत्ता चिंता प्रश्नकर्ता : ऐसा नहीं, मगर स्वभाविक फिक्र तो होगी न? दादाश्री : वह स्वाभाविक फिक्र, वही आर्तध्यान और रौद्रध्यान कहलाता है, भीतर आत्मा को पीड़ा पहुँचाई हमने। अन्य को नहीं पहुँचाते हो तो अच्छा, मगर यह तो आत्मा को पीड़ा पहुँचाई। चिंता से बँधे, अंतराय कर्म चिंता करने से तो अंतराय कर्म होता है और कार्य विलंबित होता है। हमें किसी ने कहा हो कि फलाँ जगह लड़का है, तो हम प्रयत्न करें। चिंता करने को भगवान ने मना कीया है। चिंता करने से तो अधिक अंतराय होता है। और वीतराग भगवान ने क्या कहा है कि, 'भाई, यदि आप चिंता करते हैं तो मालिक आप ही हैं? आप ही दुनिया चलाते हैं? इसे यों देखा जाये तो मालूम होगा कि खुद को संडास जाने की भी स्वतंत्र शक्ति नहीं है। वह तो जब बंद हो जाये तब डॉक्टर बुलाना पड़ता है। तब तक वह शक्ति हमारी है, ऐसा हमें लगता है। पर वह शक्ति अपनी नहीं है। वह शक्ति किसके अधीन है, यह सब जानकारी नहीं रखनी चाहिए क्या? इसका चलानेवाला कौन होगा? बहन, आप तो जानती होगी? यह सेठजी जानते होंगे? कौन होगा चलानेवाला, या आप चलानेवाले हैं? चलानेवाले संयोग... कर्ता कौन है? यह संयोग कर्ता है। ये सारे संयोग, सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स इकट्ठा होते हैं, तब कार्य हो ऐसा है। हमारे हाथ में सत्ता नहीं है। हमें तो संयोगों को देखते रहना है कि संयोग कैसे हैं। संयोग इकट्ठे होते है तो कार्य हो ही जाता है। कोई मनुष्य मार्च महिने में बरसात की आशा रखे वह गलत कहलाता है। और जून की पंद्रह तारीख आई कि संयोग इकट्ठे हुए। काल का संयोग इकट्ठा हुआ, पर बादलों का संयोग नहीं मिला, तो बिन बादल बरसात कैसे होगी? पर बादल जमा हुए, काल आ मिला, फिर बिजलियाँ कड़की और एविडन्स इकट्ठे हुए, उससे बरसात होगी ही। अर्थात संयोग आ मिलने चाहिए। मनुष्य संयोगाधीन है, पर खुद ऐसा मानता है कि, 'मैं कुछ करता हूँ। पर वह कर्ता है, यह भी संयोगाधीन है। एक संयोग बिखर गया, तो उससे वह कार्य नहीं हो सकता। ___'मैं कौन हूँ' यह जानने पर कायमी हल वास्तव में तो 'मैं कौन हूँ' यह जानना चाहिए न, खुद के ऊपर बिज़नेश करेंगे, तो साथ आयेगा। नाम पर बिज़नेस करेगें तो हमारे हाथ में कुछ नहीं रहेगा। थोड़ा-बहुत समझना चाहिए कि नहीं? 'मैं कौन हूँ' यह जानना होगा न! यहाँ आपको हल निकाल दें, फिर चिंता-वरीज़ कुछ नहीं होगी कभी। चिंता होती है, यह अच्छा लगता है? क्यों नहीं लगता? । अनंत काल से भटक भटक करते हैं ये जीव, अनंत काल से। तब किसी समय कोई बार ऐसे प्रकाश स्वरुप ज्ञानी पुरुष मिल जाते हैं, तब छुटकारा दिलवा देते है। टेन्शन अलग! चिंता अलग ! प्रश्नकर्ता : तो उस चिंता के साथ अहंकार किस तरह? दादाश्री : मैं नहीं होऊँ तो चलेगा नहीं, ऐसा उसे लगता है। यह मैं ही करता हूँ। मैं नहीं करूँ तो नहीं होगा, अब यह होगा? सुबह में क्या होगा?' ऐसा करके चिंता करता है। प्रश्नकर्ता : चिंता किसे कहते हैं? दादाश्री : किसी भी वस्तु को सर्वस्व मानकर उसका चिंतन
SR No.009582
Book TitleChinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2006
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size294 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy